Monday 5 October 2015

आदिवासी (जनजातीय) संस्कृति धर्म दर्शन.



आदिवासी (जनजाति)

आदिवासियों (गोंडवाना भू-भाग के निवासियों) की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मेरा भारतीय इतिहास से तात्पर्य नहीं है, भारतीय इतिहास में तो आदिवासी (गोंडी) गण गाथाओं का कसायल गंध भी नहीं मिलता ।

मुझे तो उस भू-भाग में पल्लवित, पुष्पित आदिम समाज की खुशबू आ रही है, जो अनंतकाल पूर्व इस श्रृष्टि की अगाध जलदाह में अंकुरित सम्पूर्ण भू-मंडल का आधे से ज्यादा हिस्सा "गोंडवाना लैंड" कहलाया और इसके प्रथम अधिपति गोंडवानावासी (गोंड) आदिवासी कहलाए ।

गोंडवाना लैंड की उत्पत्ति एवं विकास

आधुनिक युग में कपोल कल्पित बातों, काल्पनिक आस्था एवं तथ्यों का कोई स्थान नहीं है ।

इस युग के लोग शोधपरख ज्ञान और अनुसंधान पर विश्वास रखते हैं, विश्व स्तर पर वैज्ञानिकों द्वारा ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं पुरातात्विक स्त्रोतों पर किए गए गहन शोध एवं अनुसंधानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि धरती (पृथ्वी) की उम्र ३५ करोड़ वर्ष है, अर्थात धरती की उत्पत्ति लगभग ३५ करोड़ वर्ष पूर्व हुई ।

धरती का स्वरुप प्रारंभ में वायु की गतिशील, द्रवित, तप्त अंगार का गोला था, कालान्तर में यह तप्त अंगार का गोला ठंडा होकर धूल, मिट्टी, पत्थर, चट्टान मिश्रित भू-भाग में परिवर्तित हो गया. यह भू-भाग सम्पूर्ण सृष्टि का एक चौथाई हिस्सा निर्मित हुआ और शेष तीन चौथाई जलमग्न रहा ।

इस प्रारंभिक भू-भाग को वैज्ञानिकों दारा "पेंजिया" कहा गया. कालान्तर में २० करोड़ वर्ष पूर्व पेंजिया शनैः शनैः दो भागों में विखंडित हुआ ।

इस पेंजिया के विखंडित भू-खण्डों में से उत्तरी भू-खण्ड को "लौरेशिया" (अण्डोद्वीप) एवं दक्षिणी भू-खण्ड को "गोंडवाना लैण्ड" (गण्डोद्वीप) कहा गया ।


लाखों वर्षों के कालान्तर में भू-गार्भिक बदलाव के कारण गोंडवाना लैण्ड (गण्डोद्वीप) शनैः शनैः पुनः पांच भू-खण्डों में विभक्त हो गया, जिससे गोंडवाना का पंचमहाद्वीपीय- अफ्रिका, दक्षिण अमेरिका, कोयामूर, आस्ट्रेलिया एवं अंटार्कटिका बने ।

पुरातात्विक, भौगोलिक एवं मानवशास्त्रीय अनुसंधानों ने यह भी सिद्ध किया कि जीव जगत की प्रथम जीव की उत्पत्ति इस श्रृष्टि में व्याप्त सत्व तत्व मिट्टी, हवा, ऊर्जा एवं पोकरण (दलदल) से हुई ।

गोंडवाना लैण्ड में प्रथम मातृ एवं पितृ शक्तियों से विस्तारित मूल मानव वंश ही आज का गोंड आदिवासी मूलनिवासी समाज है ।


प्रकृति एवं मानव समाज में आदिवासियों की भूमिका


प्रकृति के व्यवहार से प्राकृतिक संसाधनों में विभिन्न मौसम चक्र/परिवर्तनों/बदलावों आदि के स्वरुप तथा प्राणीजगत के जीवन चक्रण एवं तात्विक संघर्षण से उत्पन्न तरंगित शक्तियों को अनंतकाल से अपने रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं संस्कृति में समाहित करते हुए जीवन यापन करने वालों को सरल शब्दों में गोंड (आदिवासी) कहा जा सकता है ।

सीधे शब्दों में- आदि व अनंतकाल से इस धरा (गोंडवाना भू-भाग) पर निवास करने वालों को आदिवासी कहा जाता है ।

आदिवासी वह है जो अपने जीवन की अटूट आस्था को प्रकृति के कण-कण में स्थापित करता है, इसलिए जीवनदायिनी प्रकृति आदिवासियों द्वारा सर्वोच्चशक्ति के रूप में पूजा जाता है ।

अतः प्रकृति पर अटूट आस्था एवं विश्वास की सर्वोच्चशक्ति सबसे बड़ा "बड़ादेव" है तथा बड़ादेव के आध्यात्म को मानने वाला गोंड आदिवासी है ।


आदिवासियों की आस्था ही नहीं, प्रकृति तत्वों, जीवों एवं वनस्पतियों के व्यवहार का दिव्यदृष्टि परख ज्ञान और विज्ञान की मान्यता भी है कि प्रकृति की सर्वोच्चशक्ति बड़ादेव (निराकार) है ।

बड़ादेव (जिसमे उत्पत्ति एवं विनाश की शक्ति है) द्वारा प्रकृति की संरचना रची गई, इसके पश्चात जीवों की उत्पत्ति हुई तथा सूरज, चाँद, तारे आदि इसी संरचनात्मक संचलन शक्ति से यथास्थान स्थापित हुए ।

तब से सभी ग्रह नक्षत्र सतत रूप से अपने पथ पर पुकराल में परिभ्रमण कर रहे हैं, आदि अनंतकाल से इन्ही प्राकृतिक तत्वों, जीवों एवं वनस्पतियों के व्यावहारिक शक्तियों को अपने जीवन के सांस्कारिक व्यवहार में उतार कर जीवन जीने की कला का प्रमाण ही आदिवासीपन है ।


पुकराल के ग्रह, नक्षत्र, तारों की गति, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, वन आदि में होने वाले प्राकृतिक व्यवहार/परिवर्तन के सिद्धांतों एवं प्राकृतिक संसाधनों के आतंरिक संघर्षण से उत्पन्न तरंगित शक्तियों को सृष्टि के स्थायित्व जीवन संस्कारों के रूप में अपनाकर आदि अनंतकाल से इस पृथ्वी पर अपना जीवन निर्वाह करने वाला मूल स्वरुप में गोंड आदिवासी है ।


आज भी आदिवासी प्राकृतिक संपदा (जल, जंगल और जमीन) से अपने प्राकृतिक व सामाजिक जीवन निर्वाह की आवाश्यकताओं की संयमित रूप से पूर्ती करता है, क्योंकि वह मानता है कि प्रकृति/पुकराल/श्रृष्टि सम्पूर्ण जीवों की सार्वजनिक संपत्ति है, जिसमे श्रृष्टि के समस्त जीवों का अधिकार और हक है ।

इसीलिए आदिवासी प्रकृति में स्थित पेड़-पौधे, झाड़ से कृषि यन्त्र या सांस्कारिक कार्यों आदि के लिए उपयोगी मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, पेड़, औषधीय पौधों, पत्ते, जड़, फूल, फल का उपयोग तथा अपने प्राकृतिक देवी-देवताओं की मान्यता (भोग/सेवा) अर्पित करने की परम्परा को पूरा करने के लिए जीव आदि की आवश्यकता पड़ने पर उस मिट्टी, पत्थर, पेड़, पौधे, जड़, पत्ते, फूल, फल, जीव इत्यादि को खोदने/उठाने/पकड़ने/तोड़ने/काटने/उखाड़ने के पूर्व बड़ादेव से आज्ञा लेता है ।


आज्ञा लेने के विधान में वह पूर्व दिशा की ओर सम्मुख होकर वस्तु के करीब में स्वच्छ जल एवं गोबर से जमीन लीपकर उसमे चावल या गेहूं के आटे से दस दिशाओं वाला चउक बनाकर, उसपर दीपक जलाकर, बंदन लगाकर, हल्दी चावल, दाल, कोयाफूल (महुआ), निमऊ (रासईन), चढ़ाकर, कंडे की आग में राल (साल पेड़ का गोंद) का होम (मर्पित) कर पुकराल के दसों दिशाओं के देवी-देवताओं का आवाहन कर आमंत्रित किया जाता है और उनकी पूजा-अर्चना की जाती है ।

इस पूजा के माध्यम से आमंत्रित प्रकृति के सभी देवी-देवताओं के समक्ष पुकराल/प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति "बड़ादेव" को अवगत कराया जाता है कि, "हे आदि एवं अनंत प्रकृति शक्ति बड़ादेव मै/हम खेती करने के लिए हल/यंत्र बनाने/बिहाव (शादी-विवाह) के लिए मढ़वा/परिवार, समाज के सदस्य की बीमारी की दवा के लिए/देवता की सेवा (बदाई) देने आदि-आदि के लिए

आपके बनाए हुए इस सुन्दरतम प्राकृतिक संरचना की मालकिन धरती माता/जल दाई/वन दाई की गोद से ...... (पेड़/पौधे/पत्ति/फूल/लकड़ी/जीव-जंतु का नाम लेकर) पेड़/पौधे/पत्ति/फूल/लकड़ी/जीव-जंतु को ले जाने की आज्ञा प्रदान कर

 इनकी जल्दी पूर्ती के लिए धरती माता/जल दाई/वन दाई को उर्वरा-पानी प्रदान कर, इस पाप कृत्य और भूल-चूक के लिए मुझे और मेरे परिवार को क्षमा कर तथा आपकी दया से किए जाने वाले पुन्य कार्य की सफलता के लिए हमें आशीर्वाद प्रदान कर"


इस तरह वचन रखकर पूजा-अर्चना करने के पश्चात ही आवश्यकता अनुसार सामाजिक, सांस्कृतिक, कृषि यन्त्र आदि के उपयोग हेतु मिट्टी/पत्थर/लकड़ी/पेड़/पौधे/पत्ते/फूल/फल को खोदा/उठाया/तोड़ा/काटा या उखाडा जाता है ।

तथा मान्यता की सेवा (वचन/बदना) पूरी करने के लिए जल, थल, वन, नभ के जीवों को पकड़ लिए जाता है ।
प्राकृतिक संरचना के समस्त संसाधनों के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक संस्कारों में आत्मीयता आदिवासी समाज के अलावा सायद ही किसी और समाज में हो ।

देवताओं की सेवा (बदना की पूर्ती) एवं खान-पान की प्राकृतिक व्यवस्थागत संबंधों के बारे में सांस्कृतिक भाग में उल्लेख किया गया है, जो प्राकृतिक पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन हेतु मानवीय कर्तव्यों का एक अभिन्न अंग है, जिसके अंतर्गत जैवीय संतुलन को बनाए रखने की भी महत्ता मिलती है ।

आदिम समुदाय पुकराल/प्रकृति (जिसमे धरती, जल, वायु, आकाश, अग्नि, चार, आचार) के उत्पत्तिकर्ता को ही बड़ादेव मानता है और पंचतत्वों को देव. इन देवों में बड़ादेव विद्दमान है ।

देव के माध्यम से सम्पूर्ण प्रकृति और उसमे रहने वाले जीवों के संरक्षण हेतु जीवन तत्व एवं जीविकोरापर्जन के साधन उपलब्ध कराने वाला भी बड़ादेव ही है ।

इसीलिए बड़ादेव आदिम सभ्यता के संवाहक गोंड आदिवासियों का प्रथम पूज्य है ।

बड़ादेव द्वारा प्राणियों के जीवन के उपयोग के लिए बनाई हुई प्राकृतिक संसाधनों को बचाने वाला आदिवासी ही है, किन्तु आज पढ़े-लिखे लोगों की दुनिया में आदिवासी को जंगली कहा जाता है ।

इन तुच्छ वक्तव्यों से हमें निराश होने की जरूरत नहीं है, जंगल में रहने वाला जंगली है ।

प्रकृति का आनंद प्रकृति पारखी ही जानता है. जंगल का सुरम्य शांत वातावरण, निर्मल कल-कल बहती नदियाँ, झरनों की सुरमयी प्राकृतिक संगीत, पशु-पक्षियों का चहचहाना, कृषि परिवार के सदस्य गाय, बैल, भैस, बछड़ों का रम्भाना, बकरियों और मेमनाओं का मिमियाना प्राकृतिक जीवन संगीत में शामिल होकर बयार की तरह ग्रामीण जीवन में रची-बसी है ।

उसे कृत्रिम आस्था की दहलीज से निकली, ढोंगी, कपटपूर्ण, दिखावे की शहरी जीवन से कोई सरोकार नहीं है ।
इसलिए जल, जंगल और जमीन पर अपना हक जताकर स्वछन्द रूप से जीवन व्यतीत करने वाला आदिवासी वास्तव में शांतिप्रिय एवं संतोषी है ।

बड़ादेव को मानने वाला आदिवासी है, इसलिए बड़ादेव के बनाए हुए प्राकृतिक संसाधनों पर अपना हक जताने वाला भी केवल आदिवासी है ।

प्राकृतिक जीवन जीने वाला आदिवासी है, प्राकृतिक जीवन जीने का रहस्य समझने वाला आदिवासी है ।

मिलजुलकर, बाटकर खाने वाला आदिवासी है, अपनी परम्पराओं को कट्टरता से निभाने वाला आदिवासी है ।

सदियों से प्राकृतिक संपदा की रक्षा करने वाला आदिवासी है,भूखे-प्यासे रहकर भी भीख नहीं मांगने वाला आदिवासी है ।

अभाव एवं कठिनाईयों में रहकर भी धैर्य का परिचय देने वाला आदिवासी है,अपने गाय, बैल, भेड़, बकरी, कुकरी-मुर्गी आदि पशु-पक्षियों की जान बचने के लिए शेर, चीते, बाघ, भालू के
साथ लड़ जाने वाला आदिवासी है ।

फिर वह कौन सी कमजोरी है, जिसके कारण विश्व के मानवीय जीवन मूल्यों के इतिहास में प्राकृतिक शक्ति, आत्मबल, साहस, शौर्य, ज्ञान, विज्ञान, मूल सांस्कृतिक संरचना आदि प्राकृतिक एवं मानवीय सार्वभौमिक सत्यता का तिरंगा (प्रमाण) लेकर प्रथम पंक्ति पर सीना तानकर खडा रहने वाला आदिवासी आज कमर, रीढ़ और सिर झुकाए अंतिम कतार पर खड़ा पाखण्ड का तमाशा देख रहा है ?


गोंडवाना ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि गोंडवाना की धरा पर सबसे प्रथम गोंडवाना गणाधिपति एवं मानव संस्कारों के पितामह शम्भुसेक (महादेवों) की ८८ पीढ़ियां ईशा पूर्व लगभग ५,००० वर्ष के पूर्व १०,००० वर्षों तक अपनी अधिसत्ता स्थापित रखीं ।

इनमे प्रथम पीढ़ी के संभू महादेवों की जोड़ी- शम्भू-मूला, मध्य पीढ़ी की जोड़ी- शम्भू-गौरा एवं अंतिम ८८ वाँ पीढ़ी सम्भू-पार्वती की रही ।

पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार, मानवशास्त्री यह मानते हैं कि सैंधव सभ्यता का प्राचीर नगर विन्यास, सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना और विकास संभू-पार्वती के काल के मध्य से अंतिम काल के मध्य हुआ ।

इसी ८८ वाँ पीढ़ी के अंतिम में ही घुमंतू जातियों (आर्यों) का गोंडवाना भू-भाग में आगमन हुआ,आर्यों के आगमन के पश्चात गोंडवाना के मूलनिवासियों के साथ कपटपूर्ण संघर्ष सुरु हो गए ।

कालान्तर में सैंधव सभ्यता का विनाश भी मूलनिवासियों और आर्यों के बीच हुई अनेक भयंकर संघर्षों का परिणाम है, जिसे हिंदू ग्रंथों में देव और असुरों का संग्राम "देवासुर संग्राम" कहा गया है ।

देवासुर संग्राम शीर्षक से ही उनकी कुटिलता का अंदाजा लगाया जा सकता है. उन्होंने स्वयं को "देव" और गोंडवाना के गणों को "असुर" (राक्षस/दानव) की संज्ञा दी ।

मानवों के बीच यह उच्चता और निम्नता का भाव आधुनिक युग में भी इन आर्य जातियों के मन में ठूस-ठूस कर भरा हुआ प्रतीत होता है ।

देव और असुरों का नाम अब "सवर्ण" और "सूद्र" हो गया है,इनके द्वारा मूलनिवासियों के साथ व्यवहार करने का स्वभाव/गुण आज भी वही है जो हजारों वर्ष पहले था ।

तथा आदिवासियों/मूलनिवासियों में आज भी वही स्वभाव/गुण है जो लाखों वर्ष पहले था. उस समय कुटिल मानसिकता के साथ आमने-सामने का संघर्ष ज्यादा हुआ ।

आमने-सामने के संघर्ष में मूलनिवासी उन्हें भारी पड़ने के कारण वे धीरे-धीरे अपने संघर्षों का स्वरुप बदल कर अनेक रूपों में इसे द्वेषपूर्ण तरीके से जारी रखा है ।

इसलिए आज भी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक सत्ता प्राप्ति, व्यावसाय-व्यापार, शिक्षा, नौकरी आदि में भी अनंतकालिक भेद-भावपूर्ण व्यवहार जारी है ।

इसके अलावा वर्णवाद, जातिवाद, उग्रवाद, आतंकवाद, नक्सलवाद जैसी समस्याएं भी देश के लोगों के साथ की जा रही असमानता एवं द्वेषपूर्ण व्यावहारिक परिस्थितियों का ही परिणाम है ।

भारत के मूलनिवासियों की धार्मिक आस्था को तोड़ने और अलग आस्था स्थापित करने के लिए गैर मूलनिवासियों ने काल्पनिक एवं तार्किक दृष्टि से धर्म ग्रंथों, वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता आदि की रचना की, जिसमे भी गोंडवाना के मूलनिवासियों को दास, दानव और राक्षस ही बनाया एवं अपने पात्रों को बुद्धिमान, चमत्कारी, शूरवीर, महामानव, भगवान के रूप में प्रस्तुतीकरण कर दास, दानव और राक्षसों की हत्यायें करवाता रहा ।

इन ग्रंथों की हजारों वर्षों की प्राचीनता बताई जा रही है,किन्तु यह बात भी तो सत्य है कि भारत में प्रथम छापे खाने की मशीन १८०० ईश्वी के प्रारंभ में अंग्रेजों द्वारा ब्रिटेन से लाई गई थी ।

देश में लिपि एवं कागज़ का विकास भी नहीं हुआ था, फिर ये ग्रन्थ प्राचीन काल में संस्कृत और हिंदी में कब और कैसे छप गए ?

इनमे सांस्कृतिक, धार्मिक, मार्मिक, कार्मिक रूप से प्रस्तुत सुनियोजित लेखनशैली संस्कृत तथा हिंदी भाषा एवं लिपि का उपयोग क्या १८०० ईश्वी के पूर्व किया जा रहा था ?

इन्हें लिखने वाले कौन हुए ?

क्या उनकी लेखनी में मूलनिवासियों के सांस्कृतिक जीवन की सच्चाई नहीं झलकी ?

ऐसे अनेक तथ्यात्मक प्रश्न आज मूलनिवासी समाज के सामने प्रकट हो रहे हैं, जिससे इस भावना को प्रबल बनाता है कि मूलनिवासियों को नीचा दिखाने के लिए हर स्तर पर धोखा करना गैर मूल्निवासियों का मूल मकसद बन गया ।

आज की वास्तविकता यही है कि वे किसी भी हालत में मूलनिवासियों को हर स्तर पर अपने से आगे बढते हुए देखना ही नहीं चाहते ।

इसीलिए मूलनिवासियों के विनाश के लिए अपनी मानसिक कुटिलता के हर तरह के हथकंडे अपना रहे हैं, जिससे सम्पूर्ण जल, जंगल और जमीन, शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, धर्म, संस्कार आदि में कब्जा जमाकर उन्हें बेघरबार, बेसंस्कर कर उनकी कमर तोड़ी जा सके ।


ग्रामीण जीवन को छोड़कर आज सभी मूलनिवासी उनकी इस कुटिल हिंदू मानसिकता के भवंरजाल में फंसकर पूरी रफ़्तार से हिंदुओं की दासिता स्वीकार कर रही है ,अपना अस्तित्व खो कर मर गया वह आदिवासी मूलनिवासी जो अपना अस्तित्व खो दिया ।

असली आदिवासी आज वास्तव में अपने प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, गौरवपूर्ण जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है, जिनके पास जीवन का साधन प्रकृति के सिवा कुछ भी नहीं है, फिर भी हिन्दुओं की दासिता स्वीकार करने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं है ।

मुझे उस ग्रामीण जीवन संस्कार पर फक्र है. नाज है ।

गोंडी गाथाओं के इतिहास में गोंडवाना की धरा पर ८८ शंभूओं की गौरवशाली १०,००० वर्षों की पूर्ण अधिसत्ता के पश्चात १८०० ईश्वी के पूर्व लगभग सम्पूर्ण भारत में लगातार १६०० वर्षों तक एकक्षत्र राज करने वाले राजे-महाराजे आदिवासी हैं ।

 अपने राज्यों में सोने-चांदी के सिक्के चलाने वाले आदिवासी हैं,सोना, चांदी, पीतल, ताम्बा, लोहा आदि समस्त धातुओं के खोजकर्ता तथा प्रथम उपयोग करने वाले आदिवासी हैं ।

विश्व के मानचित्र में देश को "सोने की चिड़िया" का अलंकरण करवाने वाले आदिवासी हैं,अनाज की खोज एवं खेती करना सिखाने वाले आदिवासी हैं ।

शरीर ढकने के लिए वस्त्र, आवास एवं अंगार के अविष्कारक आदिवासी हैं,पशुपालन का पाठ पढाने वाले आदिवासी हैं ।

हथियारों के खोज करने वाले आदिवासी हैं,विज्ञान की शक्ति की खोज करने वाले आदिवासी है,प्रथम विमान (पुष्पक) के खोजकर्ता, बनाने वाले और चलाने वाले आदिवासी हैं ।

अंतरिक्ष के ज्ञाता आदिवासी हैं,प्रकृति के तत्वज्ञानी आदिवासी हैं,विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सा विशेषज्ञ आदिवासी हैं ।

मोहन जोदड़ों, हडप्पा, सिंधु घाटी की सभ्यता के नगर विन्यास, महलों की तकनीकी एवं शिल्पकला के जनक आदिवासी हैं, जिनकी स्थापत्यकला की खोज विश्व के वैज्ञानिकों के लिए एक रहस्य बना हुआ है ।

आदिवासियों के रीति रिवाज, स्थापत्यकला, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, तत्वज्ञान, तकनीकी का बेजोड़ नमूना दुनिया के किसी समाज और देश में दूर-दूर तक नजर नहीं आता ।

चाहे अमेरिका, चीन, फ्रांस, जापान या दुनिया के अन्य कोई देश,आज का विज्ञान उस युग के ज्ञान के गर्भ में भी स्थान नहीं बबाया था, जब आदिम पूर्वजों द्वारा जल, थल, नभ, वायु, आकाश, गृह, नक्षत्र, चर, अचर प्राणियों के तत्वज्ञान की सम्पूर्णता हासिल कर लिया था ।

ऐसे तत्व ज्ञानी, दूरदृष्टा आदिवासी पूर्वजों की संतानें आज बेघर, भूखा-नंगा, गरीब, लाचार होकर अपनी उजड़ी हुई आशियाने (जल, जंगल, जमीन) की ओर निहार रहे हैं ।

युगों-युगों पूर्व आदिवासियों के शक्तिपीठों, विद्द्यापीथों से प्राप्त तत्वज्ञान के छोर तक पहुँच पाना आज भी विज्ञान के लिए कई योजन दूर का रहस्य है ।

विज्ञान प्राकृतिक सिद्धांतों से हटकर नहीं है, बल्कि बड़ादेव द्वारा बनाए हुए प्रकृति में पाए जाने वाले समस्त संसाधनों, तत्वों एवं उनमे नीहित प्राकृतिक शक्तियों को सिद्ध करने का विधान ही विज्ञान है ।

इसके अलावा वह ज्ञान जो विज्ञान से परे है, वह परा विज्ञान है ।

जहां पर विज्ञान की सीमा खत्म होती है, वहीँ से पराविज्ञान शुरू होता है ।

"पराविज्ञान" की उपयोगिता और संरक्षण का ज्ञान भी मूलतः आदिवासियों ने प्रकृति से ही प्राप्त किया ।

यह पराविज्ञान प्रकृति की शक्ति एवं उसमे विश्वास की सत्ता को स्थापित कर्ता है,प्राकृतिक तत्वों और शारीरिक तत्वों की समरूपता को स्थापित करता है ।

पराविज्ञान का कार्यविधान प्राकृतिक शब्दशक्ति, शब्द्बंध की उत्पन्न आंतरिक एवं तांत्रिक ध्वनि शक्ति/वेग/वायु के माध्यम से पूरा कियाआता है ।

उपयोग की जानी वाली इन शब्दों की आवाज नहीं सुनाई जाती, किन्तु सब्दों से संबंध रखने वाला तत्व अंतर्ध्वनि की शक्ति से जागृत हो उठती है
और कमजोर तत्वों और इन्द्रियों को अपनी शक्ति से समामेलित/समायोजित कर पुष्टता प्रदान करती है ।

इस विज्ञान/विधान की परम्परा का निर्वाह कलह, रोग-दोष से मुक्ति एवं घर-परिवार में सुखा-शांतिपूर्वक जीवन निर्वाह की प्रबलता हेतु किया जाता है ।

इस विज्ञान का सांस्कारिक विधान ही आदिम समाज का अमूल्य धरोहर है,यह धरोहर उनके जीवन के रोम-रोम में सांस्कारिक रूप से मानव कल्याण के लिए चलायमान/गुंजायमान है ।

समाज में इस परम्परा का मानव कल्याण के लिए उपयोग करने वालों की कमी नहीं है,यह परम्परा ग्रामीण जीवन के अलावा शहरी जीवन में भी देखा जा सकता है ।


मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक आदि आदिम जनजाति बाहूल्य प्रान्तों में आदिवासी ही नहीं आधुनिक युग में अपने आप को उच्च श्रेणी में स्थापित करने वाले दीगर समुदाय के पढ़े-लिखे उद्योगपति, सर्वोच्च स्तर के अधिकारी एवं शहरी जीवन के लोगों द्वारा इसे नकारते हुए और अंधविश्वास करार देते हुए भी आदिवासी संस्कृति की प्रकृति एवं पूर्वज मूल से उत्पन्न इसकी मान्यता के विधान के रास्ते पर जाते हुए देखे जा सकते हैं ।

इस विज्ञान/मान्यता/विधान के जानकार (पराविज्ञानी) लोगों के लिए शहरों से अज्ञात रूप से गाडियां भेजकर उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों से लाकर उनके द्वारा घर, बँगला एवं स्वयं या परिवार के संकट, रोग-दोष से छुटकारे, जीवन में विलुप्त प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परम्परा और इससे अप्राकृतिक, असांस्कारिक, असामाजिक, पारिवारिक जीवन में उत्पन्न कुंठा, दुख और अशांति से मुक्त होने के लिए काम कराए जा रहे हैं ।

उन्हें आने-जाने की सुविधा, कुछ रुपए-पैसे देकर उनका इस्तेमाल किया जा रहा है,
किन्तु अपनी जुबान से यह बात बताने के लिए परहेज करता हुआ स्वार्थी इंसान आदिवासियों के इस विधान को अंधविश्वास और रूढ़िवादी कहने से बाज नहीं आते ।

प्रकृति की वास्तविक शक्ति से परिपूर्ण पूर्वजों की बनाई हुई सामाजिक संस्कृति, परम्परा को भूलकर कल्पना के संसार में भटक रहे बुद्धिजीवी, पढ़े-लिखे लोगों ने प्राकृतिक, सांस्कृतिक, प्रामाणिक मानवीय ग्रामीण जीवनमूल्यों/सिद्धांतों/विधानों को हमेशा से नकारा, अंधविश्वास और रूढ़िवादी साबित करने का प्रयास किया, इसलिए उन्हें लोगों की नजरों से बचाकर, छुप-छुप कर ऐसे कार्य कराने की जरूरत पड़ रही है ।


पराविज्ञानी आदिवासी प्राकृतिक जीव एवं मानव समाज कल्याण के लिए सेनानायक की तरह कार्य करता है, परन्तु उनकी सेना में मिशाईल, तोप, गोले, मशीनगन, रायफल चलाने वाले इंसान नहीं होते ।

बल्कि प्राकृतिक तत्व, संसाधन, जीव, कीट-पतंगें उनकी सैनिक होते हैं, जो मिसाईल, तोप, गोले, मशीनगन, रायफल आदि से कोई वास्ता नहीं रखते ।

सेनानायक (पराविज्ञानी) के आदेशानुसार इनके द्वारा रक्षा/हमला करने की दूरी या स्थान का कोई दायरा नहीं होता ।

सेनानायक जहां भी और जिस साधन पर खड़ा हो जाए और उसे आदेश देने की जरूरत पड़े, ऐसी स्थिति में अंतर्मन की विधा से उत्पन्न सब्दबंध की शक्ति दशों दिशाओं में रक्षा/मारक करने की क्षमता रखता है ।

प्रकृति के वायुमंडल में प्रस्फूटित शब्दबंध अंतर्ध्वनित बेतार आदेश का पालन करने के लिए उसके प्राकृतिक सैनिकों के विभिन्न स्वरूपों का दस्ता अपने कर्तव्यों का पालन करने से नहीं चूकते ।

यह शक्ति न ही आधुनिक अश्त्र है न शस्त्र है,फिर भी विश्व के समस्त आधुनिक परमाणु बमों की तुलना इस पराविज्ञान की एक अणुशक्ति के विद्ध्वंश के बराबर भी नहीं आंकी जा सकती ।

जिस प्रकार वैज्ञानिक शोध और ज्ञान अर्जन के लिए आधुनिक संसाधनों का निर्माण एवं उपयोग करता है, उसी तरह पराविज्ञानी जीवन भर प्राकृतिक संसाधनों, तत्वों से इस ज्ञान शक्ति का शोध और संरक्षण करता है ।


आज पराविज्ञानी आदिवासियों द्वारा इस ज्ञान का उपयोग करने की मानसिकता जरूर संकीर्ण हो चुकी है ,
और इसकी छोटी-मोटी मारक क्षमता का उपयोग जन कल्याण के लिए कम दुरूपयोग के रूप में अपने सगे संबंधियों पर ज्यादा किया जाता है ।

समाज में इस परम्परा का मानव कल्याण के लिए उपयोग करने वालों की कमी नहीं है,यह परंपरा ग्रामीण जीवन के अलावा शहरी जीवन में भी देखा जा सकता है ।

आदिवासी ही नहीं दीगर समाज भी दैवीय एवं पूर्वज मूलक संस्कृति की मान्यता से अपने आप को मुक्त रखने के बाद भी परिवार में उत्पन्न कलह/रोग-दोष से मुक्ति हेतु इलाज में अंतहीन धन-संपत्ति खोकर, थक-हारने के पश्चात अंतिम जीवन प्रकाश के विकत्प के रूप में मात्र पराविज्ञान का मार्ग ही बचता है, जो विशाल एवं आधुनिक मानव समाज के ह्रदय के किसी कोने में "अंधविश्वास" के रूप में पनप रहा है ।

यदि वर्तमान जीवन में इसे अंधविश्वास कहा जाए तो उसे क्या कहा जाए, जब लोगों के द्वारा देश के महापुरषों के स्वास्थ्य लाभ, क्रिकेट खिलाड़ियों के शक्तिपूर्ण प्रदर्शन, देश की कठिन एवं संकटकालीन परिस्थितियों के समय माईक लगाकर शहर मोहल्ले में अग्निकुंड के चारों ओर बैठकर विभिन्न जीवनदाईनी अनाज, आधुनिक हवन सामग्रियों को अग्नि में जलाते हुए मंत्रजाप करते है ?

इसकी सार्थकता क्या है ?

ऐसा करने से क्या फायदा है ?

यह पराविज्ञान की ही विकृत विद्या है, इस प्रक्रिया में ध्वनी प्रदूषण, वायु प्रदूषण तथा जीवीय तत्वों का ही विनाश होता है ।

जिन्हें हम बना नहीं सकते, उन्हें हानि पहुँचाने से ज्यादा बचाने की मानसिकता होनी चाहिए ।

सार्वजनिक तत्वों, संसाधनों को पहुँचने वाली संभावित हानि से बचने की मानसिकता ही सर्वोपरी मानवीय मानसिकता है ।

आधुनिक भारत में जंगलों में रहकर भी अपने गोंडवाना भू-भाग, अपनी जन्मभूमि की रक्षा के खातिर फिरंगियों से सबसे पहले लोहा लेने वाले सूरवीर तथा तोप के गोले से छलनी होने वाली छाती आदिवासियों की ही है ।

एवं देश की रक्षा के खातिर सबसे पहले शूली पर चढ़ने वाले भी आदिवासी ही हैं,
जिनकी युगों-युगों की अमिट एवं अविस्मर्णीय भूमिका को आज के विद्वान कहे जाने वाले पढ़े-लिखे, छली एवं कपटी जातियों ने जानबूझकर मानव सामाजिक हित के ऐतिहासिक एवं धार्मिक दस्तावेजों में स्थान नहीं दिया तथा दिया भी तो दास, दस्यु, बन्दर, भालू, दानव, राक्षस बनाकर बुराई के रूप में ।

यदि आदिवासियों की प्रकृतिसम्मत विचारधारा तथा उनकी वीरता, सरलता, सहजता, समता, समानता, सरसता एवं समरसतावादी विचारधारा को स्थान दिया होता तो सायद बड़ादेव की कृपा से बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों से सुसज्जित पांच खण्ड वाले "गोंडवाना लैण्ड" का भू-भाग, भारत भूमि के सम्पूर्ण भारतीय समाज में संभवतः जाति-पाति, धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नर्क, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब आदि विभिन्न रीति-कुरीति भरी भेद-भावनाओं से हटकर विश्व का एक प्रकृतिवादी खुशहाल मानव समाज का निर्माण हुआ होता ।

तथा आज प्राकृतिक विपदा, सुनामी, ग्लोबल वार्मिंग जैसे श्रृष्टि विनाशक/समाज विनाशक परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ता ।

बड़ादेव के बनाए हुए प्राकृतिक संतुलन की व्यवस्था/नियम से परे जो कार्य मनुष्य द्वारा किया जा रहा है, वह न तो धर्म का कार्य हो सकता है और न ही पुन्य का. आज विश्व का मानव समाज कौन से कार्य "धर्म" के लिए करता है और कौन से "पुण्य" के लिए तथा कौन से कार्य "विकास" के लिए, यह समझ से परे है ।

आज जो यह सत्यता है कि सबसे प्रथम प्राकृतिक मानव धर्म का अप्रत्यक्ष निर्माण एवं निर्वहन करने वाला आदिवासी चतुरवर्णों के धर्म-अधर्म, कर्म-कांड, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क के भंवर जाल में फंसकर जो कार्य आत्मशांति, धार्मिक विकास, पारिवारिक विकास, सामाजिक विकास, सांस्कृतिक विकास के लिए करता है, वर्तमान परिदृश्य में आदिवासियों की भावनाओं के अनुसार सटीक नहीं बैठता ।

चतुराईपूर्ण निर्मित ग्रंथों की संस्कारों की ओर शिक्षित आदिवासियों का सम्मोहन, अपनी आस्था की कुदृष्टि में फंसाकर आज नहीं तो कल संवैधानिक रूप से भी आदिवासियों के अस्तित्व का विनाश एक ही वार से कर सकता है,

तथा दूसरी ओर अशिक्षित कुन्तु प्राकृतिक संवेदनशील सांस्कारिक व्यवस्था पर जीने वाला व सीधा-साधा, भोला-भाला आदिवासी सदियों से अपने जल, जंगल, जमीन से बेदखल होकर विकासवाद, नक्सलवाद एवं नकलवाद रुपी काल के गाल में निरंतर समाते जा रहा है ।

इन परिस्थितियों से यह निश्चित हो गया है कि अनंतकालिक गोंडी सभ्यता के बहुमूल्य सांस्कारिक धरोहर को धारण किया हुआ देश के ही नही विश्व के आदिवासी समाज का अस्तित्व घोर संकट में है ।


आर्य ग्रंथों में आदिवासी

आर्य ग्रंथों के अनुसार मानव विकासक्रम के साथ-साथ कालचक्र को चार युगों में बांटा गया है, सतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग और कलयुग ।

सतयुग अर्थात शंकर-पार्वती की महानता का काल ।

द्वापर युग- कौरव-पांडवों के जीवन कर्म की प्रधानता का काल ।

त्रेतायुग- राम-सीता के जीवन चरित्र की प्रधानता का काल तथा कलयुग- मानव जीवन के चारित्रिक विनास का काल माना गया है ।

इन युगों के ईश्वर, देव पुरुष ब्रम्हा, विष्णु, शंकर, कृष्ण, रामचन्द्र ही मूल नायक हैं तथा नाईका के रूप में महादेवी, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, राधा, सीता आदि ।

इन सभी युगों में ईश्वर की अराधना से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग के प्रधानता मिलती है ।

मोक्ष प्राप्त करना है तो ईश्वर की अराधना करना ही होगा, तभी मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होगी ।

इस दृष्टि से स्वर्गलोक- ईश्वरों, भगवानों का निवास स्थान हैं, जो पृथ्वी से ऊपर आकाश में कहीं है ।

पाताल लोक- दैत्य, दानव, राक्षस, मानव आत्मा का निवास स्थान है ।

स्वर्गलोक के राजा इन्द्र हैं, इंद्र देवलोक अर्थात स्वर्गलोक में निवास करते हैं,वे बहुत सुन्दर दिखते हैं, आकर्षक कपड़े पहनते हैं तथा कीमती धातुओं की मालाएं एवं हार पहनते हैं ।

ईश्वर सुरा पीते हैं तथा उन्हें खुश करने के लिए स्वर्ग के दरबार में रम्भा, मेनका, उर्वषा आदि अनेक सुन्दर बालाएं (स्वर्ग की अप्सराएं) नृत्य करती हैं, जिससे स्वर्ग के देवता खुश रहते है ।


उपरोक्त चारों युगों के भगवान के चारित्रिक गुणों के दर्शन कराने वाले ऋषि-मुनि उच्च कोटि को प्रदर्शित करने वाले ब्राह्मण ही हैं, जिन्होंने संस्कृत भाषा में वेद, पुराणों, ग्रंथों में उनके चारित्रिक गुणों की रचना की ।

इन युगों की सभी धार्मिक दर्शन एवं ईश्वर प्राप्ति, "स्वर्ग" का सुख भोगने की मुख्य विधा ब्राम्हण ही जानता है,ब्राह्मण के माध्यम से विधानपूर्वक ईश्वर, भगवान की आराधना कराये जाने से स्वर्ग का सुख प्राप्त किया जा सकता है ।

ईश्वर प्राप्ति का विधान केवल ब्राह्मण ही जानता है,ब्राह्मण के विधान कार्य के बिना ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त नहीं किया जा सकता. अर्थात ब्राह्मण का कर्मकाण्ड वह पुल है जिसके माध्यम से मनुष्य "स्वर्ग" तक पंहुच सकता है ।

ब्राह्मण से विधानपूर्वक पूजा कराने के पश्चात यदि उन्हें दान-दक्षिणा नहीं दिया तो ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त नहीं होगा तथा पूजा कराने वाला घोर पाप का भागीदार होगा ।

ऐसी स्थिति में यदि ब्राह्मण ही स्वर्ग का रास्ता जानता है, तो वह स्वयं ही स्वर्ग क्यों नहीं चला जाता ?

इस मृतलोक या पृथ्वीलोक में सदियों से प्रकृति की संरचना एवं मूल आस्था को विक्षिप्त कर भारी-भरकम एवं कदम-कदम पर निर्मित व कल्पित आस्था केन्द्रों (मंदिरों) से उसका क्या वास्ता ?

आस्था तो सम्पूर्ण श्रृष्टि है, जो जीवित है।

 श्रृष्टि ही समस्त जीवों का सर्वस्व है ।

श्रृष्टि ही मानव आस्था का साक्षात प्राकृतिक मूल ग्रन्थ है, स्वमेव एक विधान है, संस्कार है ।

आदि से अंत तक संरचनात्मक जीवन चक्र है,इसीलिए आदिवासियों को सायद धार्मिक जीवन संरचना चक्र के धार्मिक विधान (ग्रन्थ) की रचना की आवश्यकता ही नहीं पड़ी ।

किसी चीज की आवश्यकता मनुष्य को तब पड़ती है, जब उसके पास वह चीज न हो ।

अर्थात यह स्पष्ट है की आर्यन मानव को मूलनिवासियों के साक्षात प्राकृतिक विधान से पृथक धार्मिक विधान (ग्रन्थ) रचना की आवश्यकता क्यों पड़ी ?

इन धार्मिक ग्रंथों में गोंडवाना लैण्ड के निवासियों तथा उनकी संस्कृति के अस्तित्व के पुट कहीं नहीं मिलते ।

यदि कहीं मिले भी तो सिर्फ उनकी सेवा भक्ति में तल्लीन पशु, पक्षी, बन्दर, भालू आदि जानवरों अथवा उनकी संस्कृति व धर्म सेना के विपक्ष में खड़ा दैत्य, दानवों, राक्षसों के रूप में ।

आज भी इन ग्रंथों की मानव/ईश्वरीय आस्था में विषमतामूलक तथ्य मूलनिवासियों के गले से नहीं उतरता. मानव जीवन की धार्मिक आस्था में भी इस तरह उच्चता और निम्नता का जीवनकालिक विषमता क्यों ?

सभी कहते हैं ईश्वर एक है, तो ब्रम्हा, विष्णु, राम, कृष्ण, शंकर पार्वती, सीता, लक्ष्मी, सरस्वती कौन हैं ?

जब ईश्वर एक है, तो ईस्वरीय आस्था की अनेक दुकानदारी (मंदिर, मश्जिद, गुरुद्वारे, चर्च) क्यों ?

क्या इनसे शुद्ध प्राणवायु मिलती है ?

क्या इनसे प्राणियों की जीवन रक्षा के लिए अन्न/भोजन पैदा की जाती है ?

क्या इनसे पीने के लिए शुद्ध जल प्राप्त होती है ?

क्या इनसे रोगी के लिए दवा होती है ?

हरगिज नहीं ।

फिर मानव किस ईश्वर और आस्था का पुजारी बन रहा है ?

मानव इन सारे धर्म, कर्मकाण्ड से मुक्त होकर भी मानवीय जीवन जी सकता है, किन्तु श्रृष्टि/प्रकृति से मुक्त होक्त होकर नहीं ।

अर्थात आदिम संस्कृति, परंपरा अनुसार प्रकृति के संरक्षण मात्र से ही जीवन का संरक्षण कर सबसे बड़ा पुण्य कमाया जा सकता है ।

श्रृष्टि के संरक्षण के अभाव में जीवन, धर्म, संस्कृति का श्रृजन एवं संरक्षण ही व्यर्थ है, इसलिए श्रृष्टि/प्राकृतिक जीवन धर्म संस्कृति से बड़ा कोई धर्म नहीं हो सकता है ।

संबोधन में आदिवासी

गोंडी धर्म, दर्शन एवं साहित्य में कहीं भी "आदिवासी" का शाब्दिक उल्लेख नहीं मिलता ।

अतः यहाँ यह कहना उचित होगा कि आदिवासी न ही साहित्यिक शब्दावली है, न कोई जाति न ही किसी धर्म और य ही किसी सांस्कारिक प्रवृति को संबोधित करने वाला शब्द ।

आदिवासी संबोधन से ऐसा प्रतीत होता है कि वह आदिकाल से इस धरा पर सिर्फ रह रहा है तथा मानो दूसरों की परोसी हुई बोली, भाषा, संस्कारों, कला-कौशल, रीति-रिवाज एवं खान-पान आदि की भीख पर पल रहा हो ।

अर्थात किसी भी परिस्थिति में समाज के गौरवपूर्ण संबोधन का अर्थ "आदिवासी" शब्दावली में नहीं झलकता ।

इस संबोधन से हमें किसी भी दृष्टिकोण से ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गौरव एवं सम्मान नहीं मिलता, बल्कि समाज को हीन भावना से संबोधित करते हुए सिर्फ गाली मात्र ही प्रतीत होता है ।

ऐसा लगता है कि आदिवासी संबोधन का मतलब आदिवासी समाज को उनके सामाजिक मूल के स्थापत्य अस्तित्व को काल्पनिक तौर से वैचारान्तरित करने का बौद्धिक हथकंडा अपनाया गया है ।

तथा यह जारी है, ताकि मूलनिवासी समाज गैर मूलनिवासियों की आडंबरपूर्ण काल्पनिक आस्था तथा अव्यवस्थित सामाजिक व्यवस्था एवं कुरूपता को सहर्ष स्वीकार कर लें ।

गैरमूलनिवासीजन अपने अस्तित्व को बनाए रखने तथा अपनी धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्था को सर्वोच्च साबित करने के लिए मूलनिवासियों को तुच्छ एहसास कराने का एक कुशाग्र बौद्धिक हथियार के कारतूस के रूप में आदिवासी संबोधन का इस्तेमाल करते आ रहा है ।

इससे बेहतर तो यही होगा कि हम "गोंडीयन" या "मूलनिवासी" कहलाना पसंद करते ।

आर्य (यूरेशियन) समाज यह अच्छी तरह जानता है कि मूलनिवासियों की आस्था, विश्वास और धार्मिक पवित्रता का वास्तविक चित्र खींचना उनके लिए मुश्किल ही नही, नामुमकिन है ।

इसलिए जरूरत भी नहीं है ।
 आदिवासियों की आस्था अपने आप में प्रकृतिगत, नीतिगत, तर्कसंगत, वैज्ञानिक एवं परिपूर्ण है ।

सम्पूर्ण श्रृष्टि ही मूलनिवासियों की आस्था का वास्तविक चित्रण है ।

श्रृष्टि है तो आस्था है, आस्था है तो मूलनिवासी समाज सामाजिक रूप से व्यवस्थित है, जो कभी भी अव्यवस्थित हो ही नहीं सकता ।

आज भी यह समाज श्रृष्टिगत नैसर्गिक आस्थाओं से परिपूर्ण है, जो निश्चित ही श्रृष्टि के नैमित्यिक परिसंचालन के समानांतर मानवीय सामाजिक व्यवस्थाओं के संचलन का अमिट स्वरुप है, जो श्रृष्टि/प्रकृति के साथ ही मिट सकेगा ।

इसीलिए इस धरतीपुत्र को अब धरती से मिटाने के लिए उन्ही की धरती पर द्वीधारी, विकास और औद्द्योगिक क्रान्ति का कुचक्र चलाया जा रहा है, ताकि विकास एवं औद्द्योगिक क्रान्ति की उलटी धार से इनका समूल विनाश किया जा सके ।

संवैधानिक व्यवस्था में आदिवासी

आज भारत देश दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक व्यवस्था को चलाने का दावा करता है ।

भारत की प्रजातंत्र पर विश्वास भी किया जा सकता है, क्योंकि भारतीय महापुरुषों द्वारा प्रजातंत्र की मूल आस्थाओं तथा विकास की विचारधारा को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान में व्यवस्थाएं दी हैं ।

उन्हें संविधान बनाते समय इस बात का आभास था कि भारतीय गणराज्य में उन दबे-कुचले जमातों, जिन्होंने इस देश के मूल को स्थापित किया, उन्हें वास्तव में प्रजातांत्रिक व्यवस्था में लाभ मिले ।

अस्पृश्यता, असमानता की दूरियां कम हो तथा देश का मानव समाज सामान रूप से विकास के रास्ते पर आगे बढ़े ।

इसके लिए उनकी सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक भागीदारी की आवश्यकताओं को देखते हुए उन्हें लाभ दिलाए जाने तथा देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए विभिन्न नियम बनाए ।

यह व्यवस्था देश के नागरिकों को समानता का अधिकार देकर समग्र विकास की ओर ले जाने, उनकी सकारात्मक सोच का हिस्सा था ।

आज वह सकारात्मक सोच वाले हमारे पूर्वज नहीं रहे,विपरीत सोच वालों का आज देश के तंत्र में जमावड़ा है ।

सकारात्मक पहल की इच्छा रखने वाले तंत्र में शामिल समुदाय के लोगों की सकारात्मकता के बावजूद देश की प्रजा के विकास के लिए की गई प्रजातांत्रिक व्यवस्था का समुचित लाभ नहीं मिल पा रहा है ।

देश की स्वतंत्रता के बाद ऐसी असमानता, अस्पृश्यता, अन्यायिकता की तस्वीरें देखकर मूलनिवासियों के ह्रदय में उत्पीड़न की भावना जागृत होना लाजमी है ।

भारत की स्वतंत्र गणतांत्रिक व्यवस्था निर्मित होने के बाद विश्वास था कि संविधान की उद्देशिका को मूलाधार मानकर हमारे पूर्वजों ने संकल्प लिया कि "हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए,

तथा उसके समस्त नागरिकों को, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और औसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सबमे व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवंबर, १९४८ ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छै विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं."

भारत को नियंत्रित करने वाली संवैधानिक व्यवस्था में देश के पितृ पुरूषों की बसाई हुई  ।

जीवन की आत्मा को ताक में रखकर इसकी आड़ में भारतीय मूलनिवासी समाज के साथ जो अनैतिक, अभद्रतापूर्ण व्यवहार तथा जुल्म किए जा रहे हैं, वह देश, मानव समाज और प्रकृति के लिए कितना घातक है ।

उसकी कल्पना नहीं की जा सकती, देश के कर्णधारों की यह संवैधानिक संकल्पना जिस संक्रमण तथा अतिक्रमण काल से गुजर रहा है, उस अनैतिकता और अमानवीयता के दंश का दर्द आज भारतीय मूलनिवासी समाज भलीभांति महसूस कर रहा है ।

भारत की इसी संवैधानिक व्यवस्था में "आदिवासी" शब्द का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि इस आदिम समुदाय, समाज को "अनुसूचित जनजाति" के रूप में उल्लेख किया गया है ।

तब हम क्या अपने आपको आदिवासी कहकर गौरवान्वित हो सकते हैं ?

संवैधानिक व्यवस्था अनुसार हमें अपना हक प्राप्त करना है तो आदिवासी, वनवासी, गिरिजन जैसे शब्दों के संबोधन पर सामाजिक व राजनैतिक प्रतिकार होना चाहिए, क्योंकि "आदिवासी" शब्दावली एवं संबोधन को संवैधानिक व्यवस्था ने मान्यता प्रदान नहीं की है ।

संवैधानिक व्यवस्था अनुसार इस आदिम समुदाय/समाज को "अनुसूचित जनजाति" के रूप में मान्यता प्रदान किया गया है, जिसे व्यवस्थागत अधिकार प्रदान करने हेतु आबद्ध है ।

अतः आदिम समुदाय को आदिवासी शब्द से संबोधन एवं वास्तविक उपयोग भी पूर्णरूप से असंवैधानिक है ।

बोली-भाषा, लिपि एवं साहित्य

गोंडवाना के ८८ वें शंभू (शंभू-पार्वती) सभ्यता के काल में आर्य जमात का गोंडवाना में प्रवेश हुआ ।

उनके साथ स्त्रियाँ नहीं थीं ।

इस समृद्ध सभ्यता वाले भू-भाग में इनके आगमन के पश्चात वे अपने क्रूर, पाश्विक एवं लड़ाकू प्रवृति के कारण गोंडवाना के महामानवों द्वारा धारण किए गए प्राकृतिक, तात्विक एवं नैतिक ज्ञान के अस्त्र-शस्त्रों और बल के मुकाबले में हमेशा परास्त होते रहे ।

तब उन्होंनें अपने आपको स्थापित करने, श्रेष्ठता तथा समृद्धि हासिल करने के लिए बौद्धिक छल-बल का प्रयोग करना शुरू किए ।

आर्यों के वर्तमान वैदिक व धार्मिक ग्रंथों में उल्लिखित पात्र नारद के प्रदर्शित चरित्र से इस प्रयोग को समझा एवं जाना जा सकता है ।

गोंडवाना के महामानवों द्वारा गोंडवाना की जनभावनाओं को उद्घृत करने के लिए बोली-भाषा की खोज कर लिए गए थे ।

डॉ. मोती रावेन कंगाली की पुस्तक "सैन्धवी लिपि का गोंडी में उद्वाचन"उद्धरित है, की सैन्धवी लिपि का सन्दर्भ मोहन जोदड़ों, हड़प्पा, कालीबंग चाहुदरों के पुरातात्विक अवशेष में मिलते हैं, जो सैन्धवी लिपि (पाषाण मुद्रा) में अंकित हैं ।

पाषाण मुद्राओं में अंकित लिपि विश्व के अनेक पुरातत्ववेत्ताओं, साहित्यकारों के ज्ञान में अपठनीय बना रहा ।
डॉ. मोती रावेन कंगाली द्वारा इस लिपि का "गोंडी" में उद्वाचन कर यह स्थापित कर दिया कि यह लिपि "गोंडी" के अलावा किसी अन्य भाषा में नहीं पढ़ा जा सकता ।

इन्ही शैल मुद्राओं में अंकित "चक्र" प्राकृतिक रूप से दाएं से बाएं (Anti-Clock Wise) में घूमने की स्थिति में प्रदर्शित है, जो प्रकृति के संचलन नीयम का प्रतीक है, जिसके आधार पर इस मानव सभ्यता के सभी सांस्कारिक कार्य इस दिशा में संपन्न करने हतु अनुगमित किए जाते थे ।

चतुरवर्णीय इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता, साहित्यकार यह जानने की हिमाकत नहीं की या यह बताने की कोशिश नहीं की कि सैन्धव सभ्यता गोंडवाना के मूलनिवासियों की समृद्ध सभ्यता थी तथा उनकी बोली-भाषा थी, जिसके आधार पर वे उस काल की व्यापारिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कारिक आदि गतिविधियों के संचालन तथा अपनी भावनाओं का बखूबी आदान प्रदान करते थे ।

इस काल में इतिहास के अनुसार "द्रविण" कहे जाने वाले मूलनिवासी आदिवासियों की सभ्यता का विराट स्वरुप विश्व के इतिहास में पल्लवित किसी अन्य सभ्यता के अवशेष संभवतः नहीं हैं, जिससे यह प्रमाणित होता है कि सैन्धव सभ्यता शंभू सभ्यता के निरंतर प्रकृतिवादी सभ्यता थी ।

ये अवशेष ईशा से लगभग १०,००० से ५००० वर्ष पूर्व विकसित आदिम सभ्यता की कला-कौशल, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से समृद्ध मानव समाज की सामाजिक जीवन की झाकी है ।

इस सभ्यता के विकासक्रम के पूर्वार्ध तक कोयामूर द्वीप (शंभू द्वीप/गोंडवाना लैण्ड) में आर्यों का आगमन नहीं हुआ था ।

गोंडी लोकसाहित्य एवं लोकगीतों के अनुसार उल्लेख मिलते हैं कि गोंडवाना के ८८ वें सम्भुओं के काल में ही वाणी का शोध कार्य कर लिया गया था ।

वाणी की संरचना का आधार गोंडवाना के योगशिद्ध, महायोगी, महाज्ञानी, पराविज्ञानी शंभूसेक के प्रिय वाद्य "डमरू" की ध्वनि को माना जाता है,डमरू के बजने से उत्पन्न
लय/ध्वनि "गोएंदाणी" का अपभ्रंश "गोंडवाणी" है ।

इस गोंडवाना भू-भाग में शंभू युग में ही लिंगों, जंगो, धनितर, हीराशूका और कंकालिन जैसे अनेक महान संतों ने शंभूसेक के निर्देश पर संगीत, बोली-भाषा, संस्कार विधान आदि की अनंत सीमा सूत्र की आमजन में उपयोगिता हेतु गहन शोध कार्य कर इसे अमल में लाए गए ।

पहांदी पारी कुपार लिंगों ने शंभूसेक की डमरू से उत्पन्न यल/ध्वनि का शोध कर बोली में स्वर-व्यंजन की स्थायित्वता एवं एकरूपता प्रदान की. यही गोंडी/गोंडवाणी गोंडवाना की मूल भाषा कहलाया ।

युग परिवर्तन और अनेक मानवीय संघर्षों के शैलाब इन्हें रौंदते हुए आगे बढते गए, किन्तु कराह कम्पित गोंडवाणी अपने अस्तित्व को अक्षुण्य बनाए रखा और अमरता प्राप्त किया ।

इसकी अमरता को बनाए रखने के लिए सैंधवकालीन सभ्यताओं से मिली चित्रलिपि के मूल अवशेषों का शोध कर परिष्कृत लिपि, पूर्ण गोंडी लिपि आज गोंडीजनो के जीवन व्यवहार का माध्यम है ।

गोंडी साहित्यकारों का यह कहना कि- "गोंडी के बगैर गोंडवाना को समझना मुश्किल ही नही नामुमकिन है" अतः इसकी सार्थकता की पहचान के लिए नए पीढ़ी के लोगों में अपनी गौरवपूर्ण बोली-भाषा जानने, सीखने, समझने और सम्मानपूर्वक बोलने की ललक अब समाज में देखी जा सकती है ।

वेद, पुराण एवं वर्तमान साहित्यों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि "संस्कृत" सबसे पुरातन भाषा"देव" भाषा है, किन्तु यह उल्लेखनीय है कि वैदिक ग्रंथों में उल्लेखित "देव सभ्यता" के बाद की मानव सभ्यता "सैन्धव सभ्यता" या "द्रविण सभ्यता" रही होगी ।

तब यह समझ से परे है कि देव सभ्यता के पश्चात उदय होने वाली मानव सभ्यता (सैंधव सभ्यता) में देव वाणी या देव भाषा कही जाने वाली"संस्कृत" भाषा का समावेश क्यों नहीं मिलता ? "गोंडी" का पुट क्यों मिलता है ?

सैन्धव सभ्यता के बाद गोंडवाना में कई मानव सभ्यताएं अपनी-अपनी बोली-भाषाओँ के साथ फली-फूलीं तथा समाप्त हुईं ।

आज देश के अनेक पुरातात्विक, ऐतिहासिक अवशेषों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों में अंकित लिपियों का अध्ययन किए जा चुके हैं

सम्राट अशोक के शासनकाल में बनवाए गए सारनाथ एवं साँची का स्तूफ आदि के शिलालेख "पाली" भाषा तथा "ब्रम्ही" लिपि में पाए गए हैं ।

देव भाषा संस्कृत का उल्लेख कहीं नहीं मिलता ।

हिन्दुत्ववादी आस्था का परिदृश्य

प्राचीनकाल से आदिम समाज की जीविका का साधन केवल प्रकृति ही रहा है,इसलिए सम्पूर्ण प्रकृति को ही आदिम मानव समुदाय प्रथम माता के रूप में चरण वंदन करता है ।

प्रकृति के प्रचुर संसाधनों के रहते इस ओर उसका कभी ध्यान नहीं गया कि यदि प्राकृतिक संपदा खत्म हो जाए तो वह अपना जीवनयापन कैसे करेगा ।

वह सोचा भी नहीं था कि कभी उसकी जीविका के साधन खत्म हो जायेंगे या कोई ऐसा मानव भी उसकी धरती पर आएगा और धीरे-धीरे कुटिलतापूर्वक उसे उसकी धरती से बेदखल करने लगेगा  ।

वह कभी किसी से झूठ नहीं बोला, क्योंकि उसमे लालच नहीं था ।

उसके पास था ही क्या जिसे वह छुपाकर रखता,जो कुछ भी था प्रकृति के रूप में शास्वत था ।

उसके परिवार का प्रतिदिन का भोजन तो उसी जंगल में था, जहां वह रहता था,
तो बटोर के रखने से क्या फायदा ।

वह यह समझता था कि यह प्राकृतिक संसाधन उसके जीवन का अनमोल खजाना है,
जो कभी खत्म नहीं होगा ।

उसके जीवन की यही सरलता, सहजता और सत्यता आज भी उनके वंशजों के साथ इस धरा पर जीवित है ।

किन्तु घटते प्राकृतिक संसाधन तथा उनके जीवन की पग-पग की सुख और शान्ति की समुद्र रुपी स्थिरता को तोड़ने व भंग करने का कार्य किया है आर्य जमात. मूलनिवासियों की प्राकृतिक आस्था, संस्कृति का अथाह समुद्र आर्य जमात के "मुह में राम बगल में छूरी" तथा हिन्दुत्ववादी काल्पनिक आस्था एवं नैनलुभावान सांस्कारिक प्रहार के कारण आज धीरे-धीरे बिखर रहा है ।

वर्तमान समय में आदिम समाज अपने भावी पीढ़ी की आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए अंतर्मन से बहुत हतोत्साहित व भयभीत है, किन्तु यह परम सत्य है कि इस खारे पानी की शास्वत आस्था के समुद्र में खरे एवं उसी प्रकृति की आस्था वाले जीव उसमे जीवित रह सकते हैं और रहेंगे ।

आर्यों द्वारा जीविका के लिए अपनी काल्पनिक आस्था की स्थापना तथा विकास एवं विस्तार के कार्य में आने वाली बाधाओं को तोड़ने के लिए प्रकृति की शास्वत शक्ति, वास्तविक चरित्र के स्थान पर अप्राकृतिक, अशास्वत, कृत्रिमयुक्त काल्पनिक रचनाएँ एवं मूर्तियों की स्थापनाएं शुरू की गई ।

यही काल्पनिक पात्रों की रचनाएं उनके धार्मिक ग्रन्थ तथा पात्रों की काल्पनिक मूर्तियां उनके ईश्वर एवं भगवान कहलाए, जो मूल रूप से उनके जीविका के मुख्य साधन बने ।

अपनी मातृभूमि का इतिहास, प्राकृतिक आस्था और गौरवपूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, बोली, भाषा एवं पारंपरिक व्यवस्था की परख करने वाला आदिवासी समाज कभी हिंदू मत से ग्रसित नहीं हो सकता न होगा ।
इसीलिए अपने इतिहास, अपनी जमीन, अपनी आस्था, अपनी सामजिक, सांस्कृतिक, बोली-भाषा एवं पारंपरिक गौरव के अटूट बंधन पर कसा हुआ आदिवासी आज भी अपने वास्तविक अस्तित्व में है, और रहेगा ।

सवाल यह नहीं है कि आज आदिवासी समाज का उच्च शीर्ष की ओर बढ़ता हुआ एस सिरा हिन्दुवासी सामाजिक दर्शन की ओर बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है ।

सवाल यह है कि इन अदिवासियों को हिंदूवादी सामाजिक दर्शन की ओर मोड़ने का कुटिल प्रयास कौन कर रहा है,इस बात को साबित करने के लिए आर्यों की वर्णवादी व्यवस्था एवं आस्था के ग्रन्थ गवाह हैं ।

सदियों से इस गोंडवाना भाग (भारत भूमि) के मूलनिवासियों की सुव्यवस्थित संस्कारवादी, सामाजिक व सांस्कृतिक समृद्धिपूर्ण जीवनशैली का वास्तविक स्वरुप आर्यों (युरेशियनों) को देखा नहीं गया ।

कालान्तर में मूलनिवासियों की प्राकृतिक तत्वज्ञान सम्मत वास्तविक आस्था एवं विश्वास को तोड़ने के लिया काल्पनिक आस्था के विभिन्न ग्रंथों की रचना की गई ।

इन ग्रंथों में ब्रम्हा को श्रृष्टि के रचनाकार स्थापित किया जाना, उनके मुख/सिर से उच्चवर्ण/कुल के मनुष्य पैदा होना तथा पैर से शूद्र का पैदा होना आदि इनकी कल्पनापूर्ण बौद्धिक चरित्र का नमूना है ।

यदि कोई जीव संगत जीव के मुख से, भुजा से, पेट से या पैर से पैदा हो जाए तो जीवों का प्राकृतिक संसर्गीय जीवन ही व्यर्थ है,ऐसे अनेक असांस्कारिक तथ्य गैरमूलनिवासियों के धार्मिक ग्रंथों के उदाहरण हैं ।

स्वर्गलोक में राजभोग की सुंदर कल्पना एवं नर्कलोक की भयावहता के काल्पनिक प्रतिबिम्बों का चतुराईपूर्ण बौद्धिक प्रस्तुतिकरण एवं प्रदर्शन के अनेक नमूने मिलते हैं ।

श्रृष्टि विजयकर महाबली पात्रों को बन्दर, भालू आदि जानवर, दानव, राक्षस, दास, दस्यु के अलावा और कुछ नहीं बताया गया ।

एक काल्पनिक कथा समुद्र मंथन से संबंधित है ।

श्रृष्टि में अमृत्व प्राप्त करने के लिए इनके द्वारा एक कूटरचना रची गई, जिसके तहत समुद्र मंथन से उत्पन्न अमृत को समान रूप से कथित देवों और दानवों में वितरित किया जाना था ।

कथित दानवों और देवों द्वारा समुद्र मंथन के लिए सुलह किया गया और समुद्र मंथन किया गया. इस समुद्र मंथन से प्रथम उत्पन्न जहर को शंभूसेक को पिलाया गया तथा अमृत आर्यों के देव कहे जाने वाले पात्रों के बीच बाटे गए ।

अमृत के वितरण में भी पक्षपातपूर्ण स्थिति निर्मित हुई तथा देवों और दानवों के बीच छल-बलपूर्ण भारी संघर्ष हुआ ।

सम्पूर्ण मानव समाज में अपनी कल्पना को इसी तरह सदियों पीढ़ी तक प्रचारित व मानव मस्तिष्क में संचारित करने हेतु हीन से हीनतम कार्य करने में कोई कोर-कसर नही छोड़ा गया ।

मूलनिवासियों की प्राकृतिक आस्था तथा सांस्कारिक कट्टरता को तोड़ने एवं जो मानव हित में नहीं, संस्कृति में नहीं, मानव धर्म में नहीं, उन विचारधाराओं को लादने के लिए गैर मूलनिवासियों के मस्तिष्क के सागर में जितने हीन से हीनतम भावनाएं जागृत हुई, उन हीन भावना रूपी विप्लवों की अग्नि मूलनिवासियों के ऊपर ही उंडेल गए ।

ताकि मूलनिवासीजनों की जन्मभूमि की प्राकृतिक आस्था एवं विश्वास समूल जलकर विनाश हो जाए तथा गैर मूलनिवासियों के आस्था के पात्रों द्वारा विनाशकारी काल्पनिक चरित्र चित्रण एवं शारीरिक व बौद्धिक रूप से किए गए विश्वासघात के प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष असांस्कारिक हमले की वेदना के डरावने स्वरुप को देखकर व महसूस कर उनकी बनाई हुई काल्पनिक आस्था को स्वीकार कर लें ।

सच्चाई की धारा प्रवाह अब कल्पना के समुद्र का द्वार उघाड़ दिया है, जिसे आदिम समुदाय खुले आँख और अंतर्मन से देख व समझ रहा है ।


संस्कृति

आदिम साहित्यों में उल्लेख है कि "
प्रकृति की उत्पत्ति एवं महाप्रलय (कलडूब) के बाद मानव जाति का वेन (वंश) विस्तार हुआ ।

मानव वंश किसी धर्म या जाति का नहीं था ।

धर्म और जाति युरेशियनो की कुंठित मस्तिष्क में उपजी हुई खरपतवार है, जिसे प्राकृतिक मानववादी विचारधारा रुपी फसल को नष्ट करने के लिए कपटपूर्वक बोया गया तथा अभी भी यह प्रक्रिया जारी है ।

इस अमानुष गर्भ को पैदा करने वालों को यह ज्ञात होना चाहिए था
कि मानव स्वयं प्रकृति का दिया हुआ बहुमूल्य वरदान है ।

आदिवासियों ने न कोई धर्म की स्थापना की और न ही जाति की ।

जाति और धर्म के तमाम हथकण्डों और कर्मकाण्डों से अपने आप को युगों-युगों से दूर रखा और प्रकृति सम्मत विचारधारा को ही अपना धर्म मान लिया ।

इससे बड़ी मानवीय विचारधारा में धर्म और जाति का कोई अस्तित्व ही नहीं है ।

यूरेशियन घुमंतू जाति के लोगों का गोंडवाना लैण्ड में आगमन के पश्चात गोंडवाना वासियों की कला-कौशल, प्राकृतिक परम्परावादी, सुखी एवं समृद्धपूर्ण जीवनशैली को देखकर अपने आप को तुच्छ महसूस करने लगे ।
इसी तुच्छ मानसिकता की उपज "जाति" और "धर्म" हैं ।

अपनी होसियारी या अपने आप को अस्तित्व में लाने के लिए पृथक धर्म, जाति एवं संस्कृति के निर्माण/स्थापना का कुचक्र चलाया ।

यह विचार उनके स्वयं के लिए ऊंचे स्तर की स्वार्थसिद्धी हासिल करने के लिए आवश्यक था, सो उनहोंने किया,
लेकिन आदिवासियों ने तो जाति, धर्म, संस्कृति शब्दबोध की उत्पत्ति के हजारों-लाखों वर्ष पूर्व प्राकृतिक मानव धर्म एवं संस्कृति का स्थापत्य कर लिया था ।

तब आर्यों (युरेशियनो) को गोंडवाना की धारा पर पृथक जाति, धर्म और संस्कृति की स्थापना की आवश्यकता क्यों पड़ी ?

इस तथ्य पर किसी को शक नहीं होना चाहिए कि आदिवासी संस्कृति विश्व संस्कृति कि जननी है ।

आदि और अनंतकाल से अपनी रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं समृद्ध संस्कृति को अब तक बचाए रखने का कूई गूढ़ रहस्य नहीं है, किन्तु आज भी प्रकृति मूल के अपनी रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं संस्कृति को आधार मानकर बिना लोभ-लालच, इमानदारी, सादगीपूर्ण, शांतिपूर्ण एवं संतोषपूर्ण जीवन जीने की कुशलता आदिवासियों की लहु के कण-कण में विद्यमान है ।

और यही उसका गौरव है. आदिवासियों की पारंपरिक जीवन पद्धति, भाषा एवं संस्कृति वास्तव में गैरआदिवासियों के समझ से परे है या जानबूझकर आदिवासियों की प्राकृतिक परम्परावादी जीवनशैली की अच्छाईयों को अपने जीवन में समाहित करने में कतराते है ?

यह बात आदिवासियों के समझ से परे नहीं हैं ।

भारत की संस्कृति निःसंदेह विश्व के अन्य देशों की संस्कृति से भिन्न/श्रेष्ठ है"

इसीलिए सम्मान भाव से देखा जता है, किन्तु वह भारत है कहाँ ?

८० प्रतिशत भारत गाँवों, कस्बों, जंगलों, पहाड़ों में बसी है ।

गाँवों, कस्बों, जंगलों, पहाड़ों का भारत यहाँ के मूलनिवासियों का भारत है ।

आदिवासियों का भारत है, जहां प्रकृति पर प्रकृतिवादी मानव सभ्यता एवं उनकी संस्कृति रची-बसी है ।

मानव के जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु के पश्चात तक के कार्यों में मानव समाज की प्राकृतिक संस्कृति ही संस्कृति दिखाई देती है ।

जन्म से मृत्यु तक उम्र के विभिन्न पड़ावों पर माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार, समाज, देश एवं प्रकृति के बीच सैद्धांतिक, नैतिक, चारित्रिक पवित्र मानवीय संबंधों की स्थापना करते हुए सुखी एवं सांसारिक जीवन मूल्यों की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार, समाज द्वारा विभिन्न सांस्कारिक रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल के गौरवपूर्ण आयोजनों के माध्यम से प्रकृतिसम्मत जीवन के गूढ़ ज्ञान का सामाजिक, नैतिक एवं कलात्मक प्रदर्शन ही मानव संस्कार है ।

प्रत्येक माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार, रिश्ते-नाते एवं समाज द्वारा इस ज्ञान को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की निरंतरता को बनाए रखने के लिए किए जाने वाले कलापूर्ण आयोजन ही उसकी संस्कृति है ।

यही ज्ञान एवं सांस्कारिक कर्म ही मनुष्य को प्राणी/पशुता जीवन से मुक्त करता है ।

आदिवासी समाज ने इसी प्रकृतिसम्मत ज्ञान एवं कर्म को जीवन के विभिन्न पड़ावों पर सम्मानपूर्ण वैचारिक एवं चारित्रिक परिवर्तन के लिए संस्कृति के रूप में गढ़ा है तथा अपनी वास्तविक जीवनशैली में समाहित किया है ।

आदिवासी संस्कृति को निम्नानुसार तीन परिदृश्यों में देखा जा सकता है :-


(I) देव मूलक संस्कृति
(II) प्रकृति मूलक संस्कृति
(III) पूर्वज मूलक संस्कृति

(I) देव मूलक संस्कृति

आदिम समाज अपने संस्कारों में प्रकृति में व्याप्त समस्त संसाधनों, चार-आचार, तरल-ठोस, जीव-निर्जीव सभी को देव या देवी का अंश मानता है ।

संस्कारों के देवता, आदिम गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगों की मानव समाजिक संरचना में ७५० कुल गोत्र देव सगा घटक निर्धारित किया गया है ।

प्रत्येक ७५० कुल गोत्र देव सगा घटकों के लिए देव स्वरूप अलग-अलग कुलचिन्हों की मान्यता का व्यापक उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार प्रत्येक कुल गोत्रज समुदाय के लिए कुल चिन्ह के रूप में एक पशु, एक पक्षी एवं एक वनस्पति (झाड़ या पौधे) का संरक्षण एवं संवर्धन आवश्यक माना गया है ।

प्रत्येक कुलचिन्हधारी गोत्रज के लोगों को अपने कुल चिन्हों (एक पशु, एक पक्षी एवं वनस्पति) को छोड़कर शेष सभी पशु, पक्षी एवं वनस्पति का सेवन या भक्षण करने का अधिकार है ।

इस तरह आदिम समुदाय के ७५० गोत्र धारक प्रत्येक गोत्र के ३ कुलचिन्हो के हिसाब से एक ओर प्रकृति के २,२५० पशु-पक्षी, जीव-जंतु, वनस्पति का संरक्षण भी करते हैं तथा दूसरी ओर भक्षक भी होते है ।

इस प्रकार प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए सांस्कारिक नियम का पालन करना अनिवार्य है ।

इस सांस्कारिक व्यवस्था अनुसार प्रत्येक कुल गोत्रज समुदाय अपने कुलचिन्हों का देव स्वरूप पूजा करता है
तथा उनका संरक्षण और संवर्धन भी ।

ऐसा नहीं करने वाला गंभीर सामाजिक अपराधी माना जाता है तथा सामाजिक दंड का भागी होता है ।

पुकराल में धरती के अलावा श्रृष्टि के संतुलन के लिए अनेक ग्रह, उपगृह, नक्षत्र एवं तारे आदि अपने-अपने पथ पर चलायमान हैं जो पूरी श्रृष्टि को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं ।

इनका पुकराल में स्थाईत्व एवं संचलन प्रकृति के जीवन का आधार है,इनका प्रभाव सम्पूर्ण जीवमंडल पर पड़े बिना नहीं रहता ।

अतः सम्पूर्ण जीवजगत को प्रभावित करने वाले ग्रह, नक्षत्र, तारे, जल, थल, वायु, आकाश, अग्नि, वन तथा अपने पूर्वजों की आदिम समाज द्वारा देवी-देवता के रूप में निम्नानुसार पूजा विधान की महत्ता मिलती है :-

(१) बड़ादेव

सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय देव संस्कृति का ध्योतक है ।

आदिवासियों के देवों का मुखिया "बड़ादेव" है, वह श्रृष्टि रचयिता है, देवों का देव बड़ादेव है,वह निराकार एवं अजन्मा है,वह सर्वोच्च शक्ति है,वह तत्वों के उत्पत्तिकर्ता है,वह कण-कण में विराजमान है,उसका साक्षात्कार देवों से होता है,वह प्रकृति के सभी शक्तियों से बड़ा है ।

इस पुकराल एवं श्रृष्टि में बड़ादेव से बड़ा कोई देव/शक्ति नहीं हैं ।

गोंड आदिवासी समाज गोंडी में बड़ादेव को "सल्ले-गंगरा" शक्ति के नाम से स्तुति/सुमरन करता है, जिसका मतलब "धन एवं ऋण" शक्ति से है ।

इसी धनात्मक एवं ऋणात्मक शक्ति के जागृत/संयोग के कारण श्रृष्टि के स्वरुप का निर्माण हुआ तथा इसी शक्ति के कारण ही श्रृष्टि के समस्त संसाधनों का निर्माण, गृह-नक्षत्रों के संचलन की गति निर्धारित हुई ।
उदाहरण स्वरुप चुम्बक में समाहित धन एवं ऋण शक्ति को मान सकते हैं,चुम्बक के धन एवं ऋण शक्ति में आकर्षण एवं प्रतिकर्षण होता है,यही आकर्षण एवं प्रतिकर्षण शक्ति ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति है जो सम्पूर्ण पुकराल में व्याप्त है ।

इसे हम उत्पत्ति एवं विनाश की शक्ति भी कहते हैं ।

सल्ले-गंगरा की शक्ति पुकराल के समस्त भौतिक-अभौतिक, चर-अचर, जीव-निर्जीव, ठोस-तरल सभी में व्यापक रूप से विद्दमान है ।

सल्ले-गंगरा शक्ति अर्थात "धन एवं ऋण" शक्ति ही "नर एवं मादा"शक्तियां हैं, जिनके मातृत्व एवं पितृत्व गुणों से संतति उत्पन्न होते हैं ।

अर्थात उत्पत्ति की शक्ति ही सल्ले-गंगरा या बड़ादेव है ।

संसाधनों की उत्पत्ति एवं अंत तथा जीवों का जन्म एवं मृत्यु प्रकृति के चक्रण का नियम है, जिसे हम जीवन चक्र या विज्ञान की भाषा में पारिस्थितिकी अथवा पारिस्थितिकीतंत्र कहते हैं ।

अतः श्रृष्टि की उत्पत्ति एवं विनाश का स्वरुप तथा सम्पूर्ण पुकराल की अनंत धन एवं ऋण शक्ति अथवा पितृत्व एवं मातृत्व शक्ति का ध्योतक बड़ादेव है ।

(२) देव

पुकराल में गृह, नक्षत्र, चाँद, तारे आदि सल्ले-गंगरा (धन एवं ऋण) शक्ति के गुरुत्वाकर्षण के कारण यथा स्थान स्थापित हैं, जिसके कारण वे अनंतकाल से अस्तित्व में हैं और रहेंगे ।

गृहों में सूर्य सम्पूर्ण श्रृष्टि को ऊर्जा एवं शक्ति प्रदान करते हुए संयमित, संतुलित तथा दीर्घायु जीवन प्रदान करता है और चाँद सूर्य की तपन रुपी कष्टदायक परिस्थितियों के पश्चात शीतलता, जो श्रृष्टि के समस्त संसाधनों, जीवों की सुरक्षा और शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए बड़ादेव की शक्ति से स्थापित है ।

पुकराल में सूर्य, चाँद, तारे आदि आकाश में चलायमान तथा पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर हैं ।

वे निर्जीव है तथा उनमे उत्पत्ति की शक्ति (स्त्रित्व एवं पुरुषत्व गुण) का अभाव है ।

उनकी तेज एवं शक्तिशाली ऊर्जा तथा शीतलता प्राकृतिक जीवन व्यवहार को नियमित रूप से परिवर्तित, संतुलित एवं निरंतरता प्रदान करती है ।

सुदूर स्थित होने के बावजूद उनकी तेजस्विता एवं प्राणी जीवन में पड़ने वाली प्राणदायिनी प्रभाव के कारण उन्हें पुरुष रूप में देव माना गया है ।

आदिवासियों द्वारा इनकी पूजा देवों के रूप में की जाती है ।


(३) माता


सल्ले-गांगरा शक्ति जीव-निर्जीव, तरल-ठोस, चार-आचार सभी में व्याप्त है ।

प्रकृति शक्ति बड़ादेव ने प्राणियों में आकर्षण की शक्ति लिंगभेद के रूप में पुरुषत्व (धन शक्ति) तथा स्त्रित्व (ऋण शक्ति) प्रदान की है ।

प्राणियों में केवल मातृ एवं पितृ शक्ति ही बड़ादेव का प्रकृति को दिया हुआ बहुमूल्य वरदान है ।

इन्ही शक्तियों के मेल से जीव, निर्जीव, तरल एवं ठोस तत्वों की उत्पत्ति की निरंतरता के कारण श्रृष्टि का चक्रण होता है तथा अस्तित्व में है ।

अर्थात उत्पत्ति की शक्ति एवं मातृत्व का गुण जिसमे हो वह माता है ।

देव की अपेक्षा देवी (माता) संतति पैदा करने के साथ ही साथ पालन-पोषण, भोजन और सुरक्षा के अलावा देव की अपेक्षा मातृत्व के अनेक जिम्मेदारियों का निर्वहन करती है ।

माता संतति के लिए दयालु है,इसीलिए प्रकृति की देवी "धरतीमाता" अपने संतति (प्राणियों) को आँचल रुपी हरी-भरी वन, शुद्ध वायु, जल, भोजन और सुरक्षा प्रदान कर प्राणियों के
जीवन को संवारती और संरक्षण करती है ।


धरती के गर्भ में विभिन्न रंगों कि मिट्टियाँ, विभिन्न रंगों की कीमती धातुएं,
जीवनोपयोगी शुद्ध जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है,मिट्टि के विभिन्न रंगों से हमारे घर आँगन निखरते है ।

इन प्राकृतिक रंगों में हमारा जीवन संस्कार झलकता है ।

उसी प्रकार बहुमूल्य तत्वों/पदार्थों/धातुओं के बगैर हमारे आदिम संस्कार अधूरे हैं ।

आदिम समाज इन बहुरंगी, कीमती धातुओं को बेचने के लिए नहीं बल्कि सांस्कारिक श्रृंगार के लिए इनका उपयोग करता था. आज परिवर्तनशील विकासवादी, स्वार्थी आधुनिक समाज ने इनकी उपयोगिता ही बदल दी है ।

धरती के गर्भ से निकालने के लिए वहां की वन संपदा, पहाड़, पर्वत, जलस्त्रोत आदि को नष्ट किया जा रहा है तथा क्रूरतापूर्वक इन्हें निकाल कर भू-गर्भ (धरती) को चरम सीमा तक क्षत-विक्षत कर रहा है ।

आज प्राकृतिक विनाशकारी तरीके से इन्हें निकालने और जमीन की उर्वरा शक्ति, वन संपदा को नष्ट करने का पाप कृत्य किया जा रहा है ।

इसका परिणाम (पाप का फल) हमें अवश्य मिलना शुरू हो गया है, जो ग्लोबल वार्मिग के रूप में पूरा संसार भुगत रहा है ।

संतति (मनुष्य) द्वारा धन-संपत्ति की प्राप्ति एवं स्वार्थपूर्ण विकास की अंधी दौड में शामिल होकर किए जाने वाले पाप (प्रकृति के स्वरुप एवं संतुलन बिगाड़ना/नष्ट करना सबसे बड़ा पाप) की सीमा चरम पर आ चुकी है ।
इस पाप के कारण श्रृष्टि स्वयं को संतुलित करने के लिए अपने विनाशकारी रौद्र स्वरुप को कई रूपों में प्रकट करना शुरू कर चुकी है, जिसका अंतिम परिणाम प्रकृति को नए स्वरुप में परिवर्तित करना ही हो सकता है ।

धरती, जल, वन को आदिवासियों द्वारा माता के रूप में प्रथम सुमरण/पूजा किया जाता है ।

घर पर माता-पिता (संतति के उत्पत्तिकर्ता) की पूजा के पहले वन एवं वनचरों की पूजा बाहरवासी के रूप में घर से बाहर किसी स्थान में की जाती है ।

इसका उद्देश्य यह है कि मनुष्य का आदिम जीवन संस्कार पूर्ण रूप से प्रकृति के वनसंपदा, खनिजसंपदा, जीव-जंतुओं, मिट्टी के रंग, पहाड़, पर्वत, नदी, झरने अदि पर निर्भर रहा है ।

इसीलिए इनका वह सम्मानपूर्वक सुमरण/पूजा करता है,
ताकि घर में रहने या घर से बाहर राह चलते या जंगल में रहने या किसी भी कार्य/परिस्थितियों में रहने पर वनों में रहने वाले जीव-जंतुओं तथा प्राकृतिक प्रकोप से मानव समाज की रक्षा हो ।

जिस प्रकार माता अपने बच्चों का लालन-पालन एवं समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती करते हुए सुरक्षा भी करती है,
उसी प्रकार जल, थल, नभ एवं वन जीवों के जीवन की रक्षा एवं समस्त आवश्यक्ताओं की पूर्तिकर्ता जल, थल एवं वन होती हैं ।

अतः जल, थल, नभ, वनचरों के लिए जल, थल, वन, नभ एवं पवन दसेरी (दसो दिशाओं में व्याप्त हवा, प्राणवायु) माता के सामान हैं ।

इसीलिए आदिम मानव समुदाय द्वारा माता के रूप में जल, थल, वन, नभ एवं पवन दसेरी की प्रथम पूजा की जाती है, उसके पश्चात पूर्वजों की ।

इस श्रृष्टि के निर्माण तथा जीवनकाल की सम्पूर्णता प्रदान करने वाले जीवनतत्वों (जल, थल, अग्नि, वायु एवं आकाश) का प्राकृतिक विधानपूर्वक पूजा करना आदिवासीजनों का परम धर्म है ।

इन पूजा विधानों में प्रकृति, मौसम, रंग, वन, जीव, जल, थल, नभ, अग्नि, वायु संगत विभिन्न जीवन मन्त्रों का जाप (सुमिरन) किया जाता है ।

यही सुमिरन जीवनतत्वों को आकर्षित करने या सम्मानित करने का मुख्य विधान है, इस विधान से रोग-दोष से भी मुक्ति पाया जाता है ।

प्रकृति, देव-माता सुमिरन (पूजा) विधान से आदिवासियों में संकट, जीव-जंतु, मौसम, रंग, जल, थल, नभ, अग्नि, वायु, गृह-नक्षत्र वशीकरण आदि का ज्ञान धर्मार्थ एवं लोकहित में अभी भी जीवित हैं ।

यह अभिन्न ज्ञान सभी आदिवासीजनों में नहीं पाया जाता, बल्कि प्रकृति से व्यक्ति के स्वभाव के साथ अंतर्मन में स्वमेव विकसित होती है ।

इस ज्ञान की परम्परा गुरु परम्परा में प्रचलित है, जिसका संवाहक दल विशष्ट जीवनशैली का निर्वहन करता है ।

इसका अप्रत्यक्ष प्रयोग, पंचतत्व यौगिक संरचना एवं गुणों में सुधार के माध्यम से जनकल्याण के लिए किया जाता है ।

इस अंतर्ज्ञान को एहसास करने का ज्ञान, विज्ञान के पास भी नहीं है ।

यह ज्ञान विज्ञान से परे है, सीमा से बाहर है, इसीलिए इसे "पराविज्ञान" कहा जाता है ।

विज्ञान के द्वरा बनाए गए मिसाईलों का निशाना चूक सकता है, लेकिन पराविज्ञान की मिसाईलों का निशाना श्रृष्टि के किसी भी कोने के लिए अचूक है ।

विज्ञान का एक लाख परमाणु भी पराविज्ञान के एक अणु के बराबर नहीं है,इसकी प्रयोगशाला विज्ञान की प्रयोगशाला नहीं है,इस श्रृष्टि में पराविज्ञानी जहां कदम रखता है वहीँ उसका प्रयोगशाला बन जाता है ।

अर्थात श्रृष्टि का प्रत्येक कोना उसकी प्रयोगशाला है. इस ज्ञान का अंतिम अप्रत्यक्ष प्रयोग ही अंत है ।


(४) महादेव

आदिम संस्कारों में महादेव के मान मर्यादा का स्थान ऊर्ध्व स्थिति में बड़ादेव और बूढ़ादेव के मध्य रखा गया है ।

आदिम साहित्यों में उल्लेख मिलता है कि धरती पर मानव समाज/कुल/कुटुंब बना एवं वंश विस्तार हुआ, तब सयुंगार द्वीप अर्थात पंचखण्ड धरती या पांच खण्ड के महाद्वीप (गोंडवाना लैण्ड) के महामानव समाज के मुखिया/राजा शंभूसेक/शंभू मा दाव (महादेव) हुए ।

पांच महाद्वीपों का समूह, सयुंगार द्वीप (गोंडवाना लैण्ड) के मुखिया/राजा अर्थात पांच महाइंद्रियों के स्वामी अर्थात धरती के स्वामी के रूप में शंभू-मा-दाव का कालान्तर में शंभू महादेव नाम प्रयुक्त हुआ ।
इस धरती पर ८८ पीढ़ी शंभू मा दावों (महादेवों) की हुई ।

प्रथम पीढ़ी में शंभू-मूला, मध्य पीढ़ी में शंभू-गवरा एवं अंतिम पीढ़ी में शंभू-पार्वती (हिन्दु धार्मिक ग्रंथों के अनुसार "शंकर-पार्वती") हुए ।

गोंडवाना के सभी ८८ शंभूओं की पीढ़ी में शंभू-गवरा सर्वाधिक पसिद्ध हुआ ।

इनके अलावा इन पीढ़ियों में शंभू-रैय्या, शंभू-तुलसा, शंभू-अनादि, शंभू-ठम्मा, शंभू-बेला, शंभू-सति, शंभू-उमा आदि अनेक नाम मिलते है ।

इस गोंडवाना गणराज्य में इन ८८ शंभू महादेवों (राजाओं) का लगभग १०,००० वर्ष का काल बताया गया है ।

शंभू महादेवों के इस काल में सम्पूर्ण श्रृष्टि (जल, थल, अग्नि, वायु, आकाश) के सात्विक एवं तात्विक तथा श्रृष्टि की गोद में उत्पन्न समस्त जीवों एवं वनस्पतियों के जैविक एवं व्यावहारिक गुणों का ज्ञान प्राप्त कर लिया गया था, जिसके आधार पर श्रृष्टि के कालचक्र के समयानुकूल जीवों, वनस्पतियों एवं मानव के साथ व्यवहारिक जीवन का पारिस्थितिकीय संबंधसूत्र स्थापित किया गया ।

मानव के व्यवहारिक जीवन के साथ प्रकृति के पंचतत्वों, जीवों, वनस्पतियों का प्राकृतिक एवं मानवीय महत्ता तथा उपयोगिता के आधार पर उन्हें जीवन संस्कारों में स्थान दिया गया ।

यह काल मानव संस्कृति के अनुसंधान, अध्ययन एवं निर्माण का चरमकाल माना जाता है, जिसके आधार पर मानव समाज को सामाजिक, सांस्कारिक, समृद्ध एवं श्रृष्टि के समान दीर्घजीवन जीने के लिए मूल स्वरूप प्रदान किया गया ।

इस तरह सम्पूर्ण मानव समाज को श्रृष्टि के साथ समस्त सामाजिक, सांस्कारिक अंगों से समन्वय स्थापित करते हुए जीवन जीने का ज्ञान दिया गया, जिसके कारण "मानुष", मनुष्य कहलाया. इसीलिए गोंड आदिवासी समाज विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, सांस्कारिक कार्यों के संचलन के पूर्व अपने पूर्वज, देवी-देवताओं, शंभूओं की जोड़ी को अरुंग अरुंग शंभू/हर-हर महादेव कहकर स्तुति करते हैं ।

जीवन में सुख समृद्धि एवं सुरक्षा के लिए अथवा शुभ एवं धार्मिक कार्यों की शुरुवात तथा संचलन की निरंतरता और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अरुंग अरुंग शंभू/हर-हर महादेव (सभी ८८ शंभूओं की जय हो) कहकर स्तुति करते हैं ।

शंभू-पार्वती के अंतिम काल में ही गोंडवाना की धरा पर घुमंतू मानव जाति, आर्यों (युरेशियनो) का आगमन हुआ. उनके साथ स्त्रियाँ नहीं थी ।

वे पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवनशैली के संवाहक कदापि नहीं थे ।


(५) बूढ़ादेव

देखने और सुनने में आता है कि आदिवासीजन बड़ादेव और बूढ़ादेव को एक ही देव मान लेते हैं ।

बड़ादेव और बूढ़ादेव के ज्ञान, मान्यता और महत्ता में में बहुत बड़ा फर्क है ।

मानव में एक ही अंग की कमी/फर्क के कारण समाज उसे पुरष नहीं मानता. उसी प्रकार बड़ादेव और बूढ़ादेव के स्थायित्व, सांस्कारिक और अध्यात्मिक दर्शन में बहुत बड़ा फर्क है ।

बड़ादेव के संबंध में पूर्व में उल्ले किया जा चुका है ।

बड़ादेव आदि और अनंतशक्ति का ध्योतक है, जिसकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है,वह निराकार, सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापी है,वह पुकराल/श्रृष्टि के रचयिता है,वह कण-कण में विराजमान है ।

देव-देवियों, पुकराल/श्रृष्टि एवं शरीर के प्रत्येक कण के अंश में बड़ादेव की शक्ति व्याप्त है ।

बड़ादेव से बड़ा और कोई देव/ईश्वर नहीं है ।

हमें बड़ादेव और बूढ़ादेव में अंतर को समझना होगा, अन्यथा हम अपने आने वाली पीढ़ी को इनकी संरचना/स्थायित्व, सांस्कारिक महत्व और अध्यात्मिक दर्शन का हस्तान्तरण नहीं कर पायेंगे ।

आदिवासियों की परम्परा अनुसार बूढ़ादेव सभी गोत्रज/कुल/पुरखा/कुनबा का देव है ।

इसे प्रतीक के रूप में सिर्फ साजा झाड़ के मूल में स्थापित किया जाता है ।

सवाल अब यह भी उठता है कि इसे साजा झाड़ में ही स्थापित क्यों किया जाता है, अन्य झाड़ों में क्यों नहीं ?

इसे घर में क्यों स्थापित नहीं किया जाता ?

उपरोक्त के संबंध में समाज की प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दर्शनों की मान्यता है कि साजा का झाड़ तूफान, बारिस, भूमि कटाव की स्थिति में भी उसके जड़ अतिमजबूती से जमीन को जकड़े रखते हैं, जो उसकी हर कठियाईयों की स्थिति में भी अडिगता और ठहराव की निशानी है ।

इसके मोटे, बड़े आकार के पत्ते धूप और बारिस से भी जमीन का संरक्षण करते हैं ।

इसके फल दुनिया के नक्शे की बनाई गई अंडाकार द्वीध्रुवीय आकृति के समान दिखाई देता है ।

इस फल में ऊर्ध्वाकार पांच पोर (धारियां) विकसित होते हैं,इन पांच पोरों (धारियों) की बनावट और संख्या में श्रृष्टि के पंचतत्व, गोंडवाना के पांच खण्ड भू-भाग के सत्व-तत्व का दर्शन मिलता है, जो श्रृष्टि की उत्पत्ति, जीवनचक्रण एवं जैविकीय पारिस्थितिकी के लिए पूर्ण है ।

इसीलिए इसे साजा झाड़ के मूल में स्थापित किया जाता है ।

वर्तमान में वनों के विनाश और साजा झाड़ की उपलब्धता की कमी के कारण महुआ आदि
झाड़ों में भी स्थापित किए जाते हैं ।

दूसरी मान्यता यह है कि इसे आदिवासीजन घर पर ही स्थापित कर विधानपूर्वक पूजा करते थे, उसे भोग चढाते थे ।

देवताओं के भोग और परिवार के लिए भोजन आज भी घर की मातृशक्तियाँ ही तैयार करती हैं ।

तैयार भोजन सबसे पहले देवताओं को अर्पित किया जाता है ।

एक बार बूढ़ादेव के पूजा के दिन खाना बनाने वाली मातृशक्ति की ऋतुचक्र (मासिक चक्र) शुरू हो गया,उन्हें इस समयावधि का ध्यान ही नहीं रहा,भोजन बन चुका था ।

अब भोग लगाया जाता उसके पहले बूढ़ादेव को इस तथ्य का अंतर्ज्ञान हो जाने के कारण वे भोग के कार्य से लोगों का ध्यान हटाने के लिए घर से बाहर चले गए ।

लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि बूढ़ादेव घर से बहार क्यों चले गए,परिवार, कुल, कुनबा के लोगों ने उन्हें समझाने का प्रयास किया, किन्तु अंततः वे घर वापस नहीं आए और पास में स्थित साजा झाड़ के नीचे बैठकर लोगों को श्रृष्टि में "अंश श्रृजन" की पूर्व प्रक्रिया (मातृशक्ति के ऋतु परिवर्तन की मानव सांस्कारिक जीवन में महत्ता)/घटनाचक्र पर सार्थक उपदेश दिया ।

तभी से बूढ़ादेव को घर के बाहर साजा झाड़ के नीचे ही भोग लगाया जाता है ।

इस घटना और उनके उपदेशों के पश्चात बूढ़ादेव के भोग तथा कुनबा को खाना खिलाने के लिए पुरुष ही खाना बनाते हैं, मातृशक्तियाँ नहीं ।

आज भी गोंड आदिवासी समाज में मातृशक्तियाँ ऋतु परिवर्तन की समयावधि तक भोजन नहीं बनातीं. रसोई और पेन-ठाना में भी प्रवेश नहीं करतीं ।

मातृशक्तियों में ऋतु परिवर्तन की प्रक्रिया ३-५ दिन में पूरी होती है. इस अवधि में घर के पुरुष सदस्य या दूसरे सदस्य खाना बनाते हैं ।

इस अवधि तक परिवार के प्रधान सदस्य किसी दूसरे कुनबे या परिवार के शुभ कार्यों में शामिल नहीं होते. इस अवधि में ब्रम्हचर्य का पालन किया जाता है ।

गोत्र सगावार कुलदेव बूढ़ादेव की स्थापना के पूर्व निश्चित स्थान पर विधानपूर्वक साजा का पौधा रोपण किया जाता है

या प्राकृतिक रूप से विकसित पौधे को चिन्हांकित कर लिया जाता है ।

उसके पश्चात धार्मिक विधि-विधान से बूढ़ादेव को स्थापित किया जाता है,बूढ़ादेव स्थापित साजा के झाड़/पेड़ को किसी भी रूप नुकसान पहुँचाना या काटना पूर्णरूप से वर्जित होता है ।

यदि कोई जानबूझ उसे नुकसान पहुचाता है या काटता है तो उसे जीवन में भारी कलह का सामना पड़ता है,आज भी इस बात की सत्यता को झुठलाया नहीं जा सकता ।


आदिवासीजनों की मान्यता है कि इस देव परम्परा/संस्कृति में बूढ़ादेव उनके कुल-गोत्र/कुनबा का पहला व्यक्ति है
जो, बूढ़ा होकर अपना भौतिक देह त्याग चुका है ।

उसकी जीवात्मा को अपने कुल/कुनबा/पूर्वज/देव के रूप में साजा के झाड़ के मूल में स्थापित कर दिया गया ।
उस पहले व्यक्ति से लेकर अब तक अपने भौतिक स्वरुप को त्यागने वाले कुल/कुटुंब/परिवार के पत्येक सदस्य की जीवात्मा को धार्मिक विधि-विधानपूर्वक स्थापित कर दिए गए हैं एवं यह निरंतरता अनंतकाल तक चलती रहेगी ।


गोंड आदिवासियों के कुल-गोत्र/कुनबा/कुटुंबवार अलग-अलग बूढ़ादेव स्थापित किए जाते हैं, किन्तु पूजा विधान समान होता है ।

गोत्र एवं देव सगा संख्या अनुसार पितृ आत्माओं को भोग दिए जाने हेतु साजा के पत्तों में हिस्से रखकर उन्हें सुमिरन करते हुए सभी हिस्सों से ५-५ निवाले अर्पित किए जाते है ।

इस देव सगा संख्या के आधार पर गोत्र अनुसार परिवार को अपने ही गोत्र/कुल/कुटुंब के अन्य स्थान पर रहने वाले परिवार/कुल-गोत्र/सगा के बूढ़ादेव में अपने पूर्वजों को शामिल कर सकता है, बशर्ते वह उसी कुल-गोत्र/देवसंख्या का सगा हो ।

जैसे- परतेती गोत्र का पांच देव सगा दुनिया के किसी अन्य स्थान में रहने वाले परतेती गोत्र वाले पांच देव सगा के बड़ादेव पेनठाना में शामिल होकर अपने परिवार के पूर्वजों को विधानपूर्वक शामिल कर सकता है ।

पूर्व के देवगढ़, गढ़ियों में सीमित परिवार होने से लोग एक साथ बूढ़ादेव की पूजा करते थे. कालान्तर में परिवारों की संख्या में विस्तार होकर दूर-दराज, अलग-अलग गावों, कस्बों में व्यवस्थित होने के कारण अपनी सुविधानुसार अपने गाँव तथा परिवार के वरिष्ठतम सदस्य वाले कुनबे के गावों में बूढ़ादेव स्थापित कर लिए ।

सुविधानुसार उसी कुल/परिवार के वरिष्ठतम सदस्य को विधानपूर्वक बूढ़ादेव स्थापित करने की पात्रता होती है ।

बूढ़ादेव की पूजा कार्य के लिए पूजा-पद्धति के जानकार उसी कुल/कुनबा/परिवार के व्यक्ति को पुजारी का पदभार दिया जाता है तथा पूजा का कार्य सम्पन कराया जाता है ।

इस कार्य के लिए कुल का पूरा परिवार सहयोग करता है ।


(६) भगवान

गोंड आदिवासी समाज बड़ादेव को "सल्ले" मातृशक्ति एवं "गंगरा" को पितृशक्ति के रूप में मानता है ।

इस आधार पर मातृशक्ति-पितृशक्ति अर्थात माता-पिता या उत्पत्तिकर्ता या पैदा करने वाला बड़ादेव है ।

चूंकि जीव के माता-पिता संतान पैदा करते हैं और संतान योनि से पैदा होते हैं,
इसलिए संतान के लिए माता-पिता ही भगवान हैं ।

आदिवासी अपने माता-पिता की आत्मा को अपने घर में भगवान के रूप में स्थापित कर उनकी पूजा करता है ।
परिवार के द्वारा प्रतिदिन ग्रहण किए जाने वाले भोजन का प्रथम भोग उन्हें अर्पित करता है, उसके पश्चात ही वह स्वयं ग्रहण करता है,इसलिए आदिवासी समुदाय के लिए भगवान का और कोई स्वरूप नहीं है ।

दूसरे शब्दों में भगवान का अर्थ हर व्यक्ति जानता है- भग + वान = भगवान. भग अर्थात योनि, वान अर्थात चलाने वाला या निरंतरता बनाए रखने वाला या योनि से संतति उत्पन्न करने की शक्ति को बनाए रखने वाला "भगवान" है ।

इस तथ्य से माता-पिता ही भगवान हुए ।

सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय यह मानता है कि बड़ादेव द्वारा बनाए हुए प्रकृति के समस्त तत्व/संसाधन/जीव (गृह, नक्षत्र, जल, थल, नभ, वायु, अग्नि, चर-अचर, जीव-निर्जीव) प्राणीजीवन के अंग हैं, जीवनोपयोगी हैं ।
इसीलिए देव/देवी के रूप में माने जाते हैं तथा श्रृद्धाभाव से यथास्थान पूजा की जाती है ।


(७) माता-पिता (परिवार के देवी-देवता)

परिवार के देवी और देवता के रूप में अपने पूर्वजों की जीवात्मा को स्थापित करने का रिवाज गोंड आदिवसी समाज की मूल परंपरा है ।

परिवार के माता-पिता (देवी-देवता) को घर के अंदर, जहां परिवार के सदस्यों के अलावा अन्य लोगों का कम आना-जाना हो, ऐसे पृथक एवं छोटे कमरे में स्थापित किया जाता है ।

देवालय (पेन ठाना) कक्ष परिवार के मुखिया (दादा, परदादा, बड़े पिता, बड़े भाई) किसी एक के घर में स्थापित होता है ।


माता-पिता का जैसा व्यवहार होता है, वही व्यवहार हमारे पूर्वज देवी-देवताओं द्वारा हमारे साथ किया जाता है ।

जिस तरह माता-पिता प्रत्यक्ष रूप में सम्पूर्ण परिवार की रक्षा करते हैं, उसी तरह भौतिक देह को त्यागने के पश्चात भी उनकी जीवात्मा माता-पिता के स्वरुप में अप्रत्यक्ष रूप से परिवार की रक्षा करते हैं ।

वे ही परिवार के पूर्वज माता-पिता हैं ।

माता-पिता (पूर्वज देवी-देवता) के साथ और भी देवी-देवताओं की स्थापना घर में की जाती है, जो हमारे जीवन में उपयोगी हैं ।

जैसे- बूढ़ीदाई, अन्न दाई (अन्नपूर्णा), पंडा-पंडिन (रोग-दोष/कलह-बाधाओं का निराकरण/दूर करने वाले), दुल्हा-दुलही देव (विवाह संस्कार के देव), सगा-सेरमी (परिवार के बाल-बच्चों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए जाने वाले सगा देव/विवाह सांस्कारिक संबंध के देव), मुख्य द्वार पर स्थापित नारायण देव, गौशाला में सांड-सांडीन आदि घर-आँगन, गौशाला के देवी-देवता है ।

इसी प्रकार खेत-खलिहान में भी ग्राम देवताओं के स्वरुप विद्दमान होते हैं, जिनकी पूजा खलिहान कार्य के अंत में किया जाते हैं ।

गोत्रवार देवों की संख्या की मान्यता परिवार/कुनबा/कुटुंब का अहम हिस्सा है ।

गोंडी पुनेमी मुठवा (गोंडी घर्म गुरु) पहांदी पारी कुपार लिंगों द्वारा गोंड समुदाय को
१२ सगा घटकों में विभाजित किया गया है ।

गोत्रवार १२ सगा घटक (१ से लेकर १२ देव संख्या) गोंड समुदाय के विभिन्न गोत्र/कुल चिन्ह वाले १२ समूह हैं ।
सगा देव संख्या १ से ७ देव सगा गोत्र समूहों के प्रत्येक समूह में १००-१०० गोत्र निर्धारित हैं तथा शेष ८ से १२ देव सगा गोत्र वाले प्रत्येक समूह में १०-१० गोत्र निर्धारित हैं ।

इस तरह प्रथम १ से ७ देव मानने वाले सगाओं के समूहों में ७०० गोत्र तथा शेष ८ से १२ देव मानने वाले सगा समूहों में ५० गोत्र निर्धारित हैं ।

इस प्रकार गोंड आदिवासी देव सगा गोत्र संख्या ७५० हुए. इस देव सगा गोत्र संख्या को सल्ले-गांगरा के प्रतीक के मूल में स्थापित किया गया है, जिसे गोंड आदिवासी समाज शुभांक मानता है तथा सुखी एवं समृद्ध जीवन की प्राप्ति हेतु इस अंक की देव प्रतीक के रूप में पूजा करता है ।

यह सम-विषम देव सगा गोत्र व्यवस्था गोंड आदिवासी परिवार एवं समाज में पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत किए जाने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक कर्तव्यों के निर्वहन की जिम्मेदारी सुनिश्चित करता है ।


(II) प्रकृति मूलक संस्कृति

श्रृष्टि में प्राणियों का साक्षात्कार सर्वप्रथम प्रकृति से हुआ ।

तब प्राणियों को सर्वप्रथम आवश्यकता आहार की हुई एवं उसे पहचाना,प्रकृति के समस्त प्राणी आहार के लिए पेड़-पौधे, फूल-फल, पत्ते तथा दूसरे प्राणियों पर निर्भर हो गए. एक प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी का भक्षण किया जाना उसकी शारीरिक शक्ति/क्षमता/आकार पर निर्भर करने लगा ।

उसी प्रकार मनुष्य भी प्राणियों के व्यवहार को समाहित कर लिया,प्राणियों में केवल मनुष्य अपने बौद्धिक विकास की अलौकिकता के कारण व्यवहार को जानने हेतु सोचने, समझने और वाणी में उद्घृत करने का तंत्र विकसित कर लिया एवं इस बौद्धिक विकास के क्रम में उसने अपने एवं समूह की सुरक्षा के लिए सुरक्षा साधनों का विकास किया ।

मनुष्य का यही बौद्धिक विकासक्रम कालान्तर में उसे पशुता से मनुष्यता में स्थापित कर दिया ।

अब मनुष्यों के समूह की जीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती समूह के सदस्यों द्वारा किया जाने लगा. समूह के आधार पर संसाधनों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधन उसके जीवन के अभिन्न अंग बन गए, जिनके बगैर मनुष्य आर भी अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता ।

अच्छाई और बुराई की समझ उसकी संतति की उत्पत्ति और सुरक्षा से प्रारम्भ हुई,संतति की सुरक्षा का एहसास एवं समझ किसी में कम किसी में ज्यादा, प्राणियों में जन्मजात है ।

प्राणी प्रकृति प्रदत्त अपनी शारीरिक बनावट, क्षमता, आकार, रंग एवं बौद्धिक कुशलता से प्रकृति में घटित होने वाली घटनाओं से स्वयं एवं अपने समूह की रक्षा करता है ।

अपने जीवन में आदिवासी समय-समय पर प्रकृति एवं प्राणियों के परिवर्तित जीवन स्वरूपों को
अमूल्य धरोहर "संस्कृति" के रूप में समाहित किया है ।

आदिकाल से आदिवासियों के ग्रामीण जीवन में झांक कर देखें तो यह तथ्य साबित हो जाता है कि वास्तव में उसका जीवन प्रकृति से कितना जुड़ा है ।

अर्थात प्रकृति के बिना मानव तो क्या समस्त चर-अचरों का जीवन ही नहीं है,आदिम समाज प्राकृतिक आध्यात्म के दर्शन को देवी-देवताओं के रूप में अपनाता है और अपने जीवन की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए प्रकृति की पूजा करता है ।

इसीलिए आदिम समाज के पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कारिक एवं आध्यात्मिक मूल में प्रकृति पूजा का विधान मिलता है, जिसके कारण वह प्रकृति पूजक कहलाता है ।

ग्राम जीवन में प्रकृति प्रेम एवं पूजा का निम्नानुसार स्वरुप दिखाई देता है :-


(१) खेरमाई (ग्राम समुदाय की माता)

सबसे प्रथम आदिम मानव समुदाय ने धीरे-धीरे समूह में रहने का तंत्र विकसित किया ।

समूह में रहने का महत्व एवं लाभ को जाना और आज भी वह समूह में ही रहना पसंद करता है ।

आदिम मानव समाज के इन्ही समूहों में रहने के स्थानों को गावँ या ग्राम कहा गया है,ग्राम यूँ ही नहीं बस गए. गावों को बसाने वाले समुदाय के प्रथम मुखियाओं द्वारा इन गाँवों को विधानपूर्वक बसाने के अनेक प्राकृतिक प्रतीक जीवित हैं, जिनकी मान्यताएं आधुनक काल में भी प्रचलन में हैं ।

आदिम मानव समुदाय ही नहीं आधुनिक समाज भी इन प्राचीन विधानों का अनेक एवं परिवर्तित स्वरूपों में अनुसरण करता हुआ दिखाई देता है ।

गावों को बनाने/बसाने के पूर्व वहाँ की मिट्टी, वायु, जल का परीक्षण, जल एवं कृषि भूमि की उपलब्धता, आवास बनाने हेतु प्राकृतिक संसाधन, पशुओं के लिए आवश्यक चारागाह की उपलब्धता आदि का ध्यान रखा जाता था ताकि जीवन उपयोगी संसाधनों की आवश्यकता अनुसार सतत पूर्ति हो सके ।

इन गाँवों, स्थानों, घरों को बसाने/बनाने के पूर्व पूजा-विधानों के कार्यों को किए जाने का मुख्य आधार यही होता है कि वहाँ बसने वाले मानव समुदाय सुख-शान्ति और समृद्धिपूर्ण जीवन निर्वाह करे ।

आदिम मानव समुदाय द्वारा ग्राम/गाँव बसाए जाने के पूर्व भविष्य के परिस्थितयों का आकलन करते हुए वर्तमान ही नहीं अपनी आने वाली पीढ़ी की सुख और समृद्धि को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक आध्यात्म और मान्यता अनुसार ग्राम देवी-देवताओं की स्थापना की जाती रही है ।

इन देवी-देवताओं की स्थापना ग्राम जीवन की महत्ता, कार्यों की सफलता, प्राकृतिक आपदाओं से ग्राम की सुरक्षा, फसल, पशु, मानव समुदाय व ग्राम की सुरक्षा आदि के उद्देश्य से ग्राम प्रमुखों,
परिवार प्रमुखों के द्वारा उपवास रखकर की जाती है ।

आदिम समुदाय की प्राचीन सामुदायिक जीवन मातृप्रधान होने के कारण समूह की प्रथम माता जंगो रायतार दाई (समूह की रक्षा सहने वाली माता), माता कली कंकाली के रूप में मिलती है,
जिनकी भावी सांस्कारिक मानव समाज के निर्माण में अहम भूमिका मिलती है ।

शंभू काल की इन पूर्वज मानववंश की माताओं की महिमा अपार और अनंत है ।

इनकी महिमाओं का बखान करने की शक्ति/क्षमता गोंडवाना संदेश की लेखनी में नहीं है ।

गोंडवाना के अनेक महान साहित्यकारों ने इन माताओं की जीवन-गाथा के बारे में गोंडवाना साहित्यों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ।

किन्तु यहाँ अनादिकाल के पराविज्ञानी पितृ एवं मातृशक्ति (नांगा बैगा-नांगा बैगिन) धरती पुत्र भूरा भगत और धरती पुत्री माता कोतमा के ७ पुत्रों और ५ पुत्रियों के द्वारा समाज सेवा की भूमिका के संबंध में यथा स्थान सक्षम स्तर से जानकारी रखी जा रही है ।

इन भाई बहनों में सबसे छोटी बहन अर्थात ग्राम समाज की माता "खेरमाई/खेरोमाई" है ।

कहा जाता है कि भूई पुत्र भूरा भगत और भूई भोज की पुत्री माता कोतमा (नांगा बैगा-नांगा बैगिन) के ७ पराक्रमीपुत्रो में से जेष्ठ पुत्र "कुंआरा भिमाल" हुए ।

उनमें समाज रचना, श्रृजन एवं ज्ञान की विलक्षण प्रतिभा, पराविज्ञान की प्रतिभा और अकूत ताकत (बल) था ।
इसलिए वे हमेशा समाज की भलाई के लिए श्रृजन एवं पराविज्ञान की खोज में ही लगे रहते थे ।

पराविज्ञानी होने के कारण वे गावँ-गावँ जाकर सामुदा/समाज की सुख, शान्ति और समृद्धि के लिए पराविज्ञान का उपयोग कर जिस-जिस गाँव में जाते थे, वहीँ देव ठाना-बाना स्थापित किया करते थे ।

इस सामाजिक कार्य में अतिरुचि एवं उत्साह के कारण वे घर से निकल कर एक गाँव से दूसरे गाँव, दूसरे गाँव से तीसरे ...... और अंत तक वे घर वापस नहीं आए ।

कुंआरा भिमाल के घर वापस नहीं लौटने पर माता-पिता अति चिंतित होकर उनके सभी ६ भाईयों को उन्हें ढूँढकर वापस घर लाने के लिए भेज दिए और यह भी आदेश दिए कि जब तक कुंआरा भिमाल न मिले तब तक कोई घर नहीं आओगे ।

सभी भाईयों ने गोंडवाना भू-भाग का गाँव-गाँव, कोना-कोना ढूँढते रहे ।

ग्राम समुदायों से उनकी जानकारी मिलती रही, किन्तु निश्चित ठौर-ठिकाना कूई नहीं बता पाते. ढूँढ़ते-ढूँढ़ते बरसों बीत गए ।

अंततः कुंआरा भिमाल अपनी विशेषज्ञता के आधार पर ग्रामजनो की सेवा, समर्पण, कर्तव्य परायण, व्यक्तित्व एवं समुदाय में अटूट श्रृद्धा भक्ति विश्वास के रूप में उन्हें  मिला ।

अपने भाईयों के आगमन का कारण समझने में उन्हें देर नहीं लगी,सभी भाईयों द्वारा माता-पिता का संदेश बताकर उन्हें घर वापस चलने का आग्रह किया गया ।

कुंआरा भिमाल संदेश सुनकर चिंतित हो उठा,एक तरफ माता-पिता का पुत्र स्नेह के लिए डबडबाई आँखों का इन्तजार तथा दूसरी ओर ग्रामजनों की सेवा, कर्तव्य परायणता से दूर होने की स्थिति का दुख उन्हें सता रहा था ।

चिंतन मनन कर उन्होंने अपने भाईयों एवं ग्राम समुदायों को प्राकृतिक आध्यात्म, जन्म-मृत्यु, सुख-दुख, परिवार, समाज, संस्कृति, समाजसेवा आदि की मानव जीवन में महत्व एवं उपयोगिता के संबंध में उपदेश देते रहे ।

उनके जीवन उपदेशों और विचारों के सागर में डूबकर भाईयों के सांसारिक मोह माया भी धुल गए और वे भी गाँव-खूटों के किनारों में बैठकर अपनी-अपनी विशेज्ञता अनुसार कूईतुरों की विभिन्न प्रकार की सेवाओं में लग गए और सभी भाई अंततः घर वापस नहीं लौटे ।

इनमे से एक भाई गाँव का "ठाकुर देव" एक "खीला मुठवा" एक गाँव के मेढ़ो/सरहद/नार से गाँव का रखवाला, पहरा देने वाला, पाट-पीढ़ा करने वाला "कुंआरा भिमाल" आदि जिनकी मान्यता अनुसार आगे उल्लेख किया गया है ।

कई वर्ष बीत जाने तथा उन ६ भाईयों के घर वापस नहीं लौटने पर उनके माता-पिता फिर चिंतित होकर सभी बच्चों के बारे में सोचने लगे,उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे कहाँ निकाल गए । अब क्या करें ?
माता-पिता बच्चों की याद मे बेचैन हो उठे,उनकी आँखें बार-बार बाहर निहार रही थीं,उनकी आँखे अपने बच्चों को देखने के लिए तरस गईं,सभी बहनों मे उदासी छा गई ।

कई दिनों बाद माता-पिता ने पुनः निर्णय लिया और अपने पांचो बेटियों को सभी भाईयों को ढूँढकर लाने का आदेश दिए और यह भी आदेश दिए कि जब तक उनके सभी भाई उन्हें नही मिल जाते तब तक वे घर वापस न आयें ।

आदेश का पालन करने के लिए सभी पांचो बहिनें उन्हें ढूँढने निकल पड़े ।

पांचो बहिनें गाँव-गाँव खोजते रहे किन्तु उनकी स्थिरता कोई नहीं बता सकता था ।

महीनों कूजने के बाद उन्हें मिल गए,मिलने के पश्चात बहनों के सामने आई और वही उपदेश मिला जो भाईयों को मिला था. उपदेश पाकर सभी बहनें गाँव के विभिन्न खूटों, ठौर-ठानों मे स्थित होकर अपनी-अपनी विशेषज्ञता अनुसार कोईतुरों की सेवा मे लीन हो गए और अंततः घर वापस नहीं लौटे ।

इन्ही पांच बहनों में से सबसे छोटी बहन "खेरमाई" कोईतुरों की सेवा और रक्षा के लिए प्रसिद्धि प्राप्त की, जिसके कारण आदिकाल से आज तक आदिवासी समाज श्रृद्धा पूरित भाव से "खेरमाई" की पूजा करते हैं ।

खेरमाई/खेरोमाई को ग्राम/गावँ खूट की प्रथम माता माना जाता है ।

प्रथमतः गावँ माता के रूप मे आदिम समुदाय द्वारा पूजे जाने वाली खेरमाई/खेरोमाई अर्थात गाँव की रक्षा, सुख, समृद्धि प्रदान करने वाली माता की स्थापना ग्राम के मध्य भाग में स्थित अधिकतर बड़, पीपल, महुआ प्रजाति के जीवनदायिनी विशाल वनस्पति/वृक्ष (झाड़) के मूल में किए जाने की मान्यताएं मिलती हैं ।

इन प्रजातियों के वृक्ष सुगमता से ग्राम के मध्य या आस-पास नहीं पाए जाने की स्थिति में अन्य वृक्षों में भी "खेरमाई"की स्थापना की जाती है ।

खेरमाई के साथ मान्यता अनुसार अनेक जीवीय संसाधनों की सुरक्षा, रक्षा करने वाली माताएं एवं देवताओं -"अगुवानी (हिरवा), अन्नपूर्णा/पंडरी/पुगुर माता (विविध अन्न), पंचतत्वों के प्रतीक देवताएं आदि की स्थापना की जाती हैं ।

ग्राम के ग्राम देवताओं, खेत-खार, खरही-खानिहाल, जंगल-हार, नदिया-नरवा, ताल-पनघट, कुआं-बावली, पाट-पीढ़ा, रस्ता-बाट, डोंगर-घाट आदि अनेक स्थानों पर स्थापित हैं, जिनका गाँव के रक्षक देवी-देवताओं के रूप में ग्रामवासी वर्ष के विभिन्न कर्मप्रधान अवसरों पर पूजा करते हैं ।

प्रतीक के रूप में माताओं के धारित विभिन्न रंगों के कुल/कुटुंब के वंशध्वज लगे सल्ले-गांगरे स्वरुप कुंवारी लौह धातु/बांस के बने विभिन्न त्रिमार्गी बाना/शूल में लगे होते हैं ।

कई स्थानों में पूजा हेतु चौक-चौरा आदि बनाए जाते हैं,कहीं कुछ भी प्रतीक भी नहीं मिलते ।

पूजा के समय पूजा स्थान का सफाई कर लिया जाता है,इनके अलावा किसी अन्य देवी-देवताओं की मूर्ती की स्थापना व पूजा का विधान नहीं मिलता ।


वर्तमान में गोंडवाना के अनेक पहाडों पर स्थापित एवं पूजे जाने वाली माताएं खेरोमाई के बावन लश्गर (पहाड़ों से गढों की रक्षा/सुरक्षा करने वाली/गढ़ माता) हिंगलाजनी, शारदा, दंतेश्वती, बम्लेश्वरी, महामाया, चंद्रहासनी, कोकासनी, शीतला, विमलेश्वरी, राजराजेश्वरी, रणचंडीका, तपेश्वरी, ज्वाला, बूढ़ी दाई, मनिया दाई, लंजकाई, चौरा देवी, मालादेवी, मरही माता आदि बताए गए हैं ।

इन सभी में सगा-सम्बन्धी, रिश्तेदारी की मान्यताएं गोंडी गण-गाथाओं में मिलती हैं ।


(२) ठाकुर देव

पूर्व उल्लिखित नांगा बैगा-नांगा बैगिन के ७ पराक्रमी पुत्रों, जो सबसे बड़े पुत्र कुंआरा भिमाल की खोज में निकले थे, उनमे से एक ठाकुर देव (जाटवा) है ।

माना जाता है की ठाकुर देव बीज परीक्षण, भूमि उर्वरा परीक्षण, जल, कीट पतंगी गुण-धर्म के ज्ञाता थे,
जिन्होंने ग्राम के मानव समुदाय को फसल जीवनचक्र के ज्ञान के द्वारा अधिक अन्न-धन उपजाकर समृद्धि हासिल करने का मार्ग बताया ।

इसलिए ग्राम देवी देवताओं की मान्यता अनुसार बिदरी मनाकर बीज सूत्र/बोए जाने वाले अन्न बीज का अंश चढाकर बीज की रक्षा, फसलों की कीट-पतंगों से रक्षा, भूमि उर्वरा, हवा, जल सान्द्रता/समन्वय आदि प्रकृतिगत वैधानिक रक्षा की कामना पूर्ति के लिए कृषि ग्राम जीवन में ठाकुर देव की पूजा की जाती है ।

ठाकुर देव की स्थापना भी महुआ, आम, नीम आदि मान्य पेड़ों पर ही प्रकृतिगत सांस्कारिक विधानपूर्वक किया जाता है,
यह ग्राम का ठाकुर और ग्राम देवों मे प्रमुख है ।


(३) खीला मुठवा

ग्राम जीवन में आदिवासियों के जीवन निर्वाह के साथी पशु-पक्षी, गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, कुकरी-मुर्गी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
बैलों के माध्यम से कृषि कार्य किए जाते हैं तथा गाय, भैंस, भेड़, बकरी से दूध उत्पादन किया जाता है ।

इन पशुओं से परिपूर्ण परिवार समृद्ध परिवार कहलाता है,ये मानव सहयोगी पशु-पक्षी धन के प्रतीक माने जाते हैं ।

इन्हें चारागाह में ले जाने के पूर्व ग्राम के बीचों-बीच या किनारे निर्धारित एक सामूहिक गौठान में रखा जाता है ।

इसी सामूहिक गौठान के पास ही खीला मुठ्वा की स्थापना की जाती है, ऊपर वर्णित पांच भाईयों में से एक भाई "खीला मुठ्वा" (मुकेशा) के रूप में इसकी मान्यता मिलती है, जो पशु-पक्षियों की प्रकृति के जानकार, संरक्षक और वैधक कार्य से परिपूर्ण था.
इन्होंने आदिम मानव को पशुओं की प्रकृति, संरक्षण एवं व्यावहारिक जीवन में उनकी उपयोगिता का ज्ञान प्रदान कर जीवन में समृद्धि प्राप्त करने का संदेश दिया ।

इस आधार पर खीला मुठवा ग्राम पशुओं के संरक्षक, रोग-दोष से मुक्ति, जंगली जानवरों, कीट-पतंगों से सुरक्षा, कृषि कार्यों में उपयोग में लाई जाने वाली औजारों का निर्माण एवं सुरक्षा करने वाला देव माना जाता है ।

इसलिए इन्हें ग्राम के शमूहिक गौठान के पास ही स्थापित किया जाता है,खीला मुठावा देव को भी किसी विशाल वृक्ष-सेमल, महुआ, नीम आदि में (मान्यता अनुसार) स्थापित किया जाता है ।

(४) मेढ़ो देव

गावँ की सरहद में रहकर १० दिशाओं में सुरक्षा कवच बनकर गावँ की रक्षा करने वाला देव "मेढ़ो देव"कहलाता है.
उपरोक्त ५ भाईयों में से प्रथम महाबली/शक्तिशाली, हवा, बिजली, बादल, पानी, तूफान, वर्षा, प्रकृति के जानकार, तंत्र-मंत्र, झाड़ा-फूँका, वैध्य कला में पारंगत, मढ़िया के रखवाला "भिमाल पेन" है ।

इसे "नार" अर्थात ग्राम की सरहद का रखवाला "नारसेन" देव भी कहा जाता है ।

इसे ग्राम की सरहद पर स्थित पेड़, चट्टान, पत्थर आदि में स्थापित किया जाता है,माना जाता है की नारसेन देव ग्राम की दशों दिशाओं की सरहद से ग्राम में प्रवेश करने वाले विपत्तियों को रोकने की क्षमता भिमाल पेन में है ।

इसलिए वह अपने भाई-बहनों (ग्राम देवी देवताओं) तथा ग्रामजनों की सरहद में रहकर हर मुसीबत से रक्षा करने वाला देव माना जाता है ।

कुंआरा भिमाल सबसे बड़े पुत्र/भाई के रूप मे स्थापित हुए,इनके अलावा शेष भाई-बहन भी ग्रामसेवा, जनसेवा में ग्राम के अनेक खूट, पाट, ठानों, ताल, तरिया, पनघट, खेत-खानिहाल में मान्यता अनुसार विराजमान हैं, जो आगे शोध का विषय है।

क्षेत्रीय बोली-भाषा के आधार पर इन ग्राम देवी-देवताओं के नाम के उच्चारण में अपभ्रंस हो सकता है, किन्तु इनकी स्थापना का उद्देश्य ग्रामवासियों तथा उनके जीवन रक्षक विभिन्न संसाधनों की सुरक्षा, रोग-दोष, कलह, हिंसक जानवरों से स्वयं तथा पालतू पशु-पक्षियों की सुरक्षा, कीट-पतंगों से फसलों की सुरक्षा, प्राकृतिक प्रकोप से सुरक्षा तथा सुखी एवं समृद्ध जीवन की प्राप्ति के लिए की जाती है ।

इनकी स्थापना एवं पूजा का प्रकृतिमूलक विधान ग्राम जीवन का गौरव है ।

(III) पूर्वज मूलक संस्कृति

पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि गोंड आदिवासी समुदाय अपने पूर्वजों की पवित्र आत्मा को ही देवी-देवता (माता-पिता) के रूप में घर में स्थापित कर पूजा करता है ।

माता-पिता, पूर्वजों से बढ़कर उनका कोई और भगवान नहीं है,अपने पूर्वजों की पवित्र आत्मा को अपने घर के देवी-देवता के रूप मे स्थापित किया जाना तथा उनकी नित पूजा करने का विधान केवल आदिवासी संस्कृति मे ही मिलता है ।

प्रतिदिन का भोजन पहले अपने पूर्वजों को अर्पित करता है, उसके पश्चात वह स्वयं भोजन करता है ।

अन्य समुदाय वर्ष मे केवल एक दिन पितरों की पूजा करता है और भोग चढ़ाता है,इस प्रकृति मे पैदा होने वाला भौतिक शरीर अंत मे पंचतत्वों मे विभक्त होकर प्रकृति मे विलीन हो जाता है ।

उत्पत्ति और अंत प्रकृति का विधान है,इस विधान से बढ़कर और कोई सत्य नहीं है,इसीलिए आदिवासी समुदाय के आध्यात्म एवं संस्कृति मे इसी सास्वत प्राकृतिक शक्ति की पूजा "प्रकृति पूजा" के रूप मे मिलती है ।

इसी आध्यात्म और संस्कृति के आधार पर आदिवासी समाज मूर्तिपूजक कादापी नहीं है ।

भौतिक सत्ता की जमीन पर कदम रखने वाले आदिवासिजनों को अपनी असली जीवन संस्कृति
पर लौट आने की जरूरत है ।

आदिवासियों की सामाजिक रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल तथा संस्कृति दुनिया की किसी भी संस्कृति से न ही धूमिल है और ना ही खराब है ।

आदिवासी संस्कृति आडंबरपूर्ण आधुनिक रीति-रिवाजों, पूजा पद्धतियों से परिमार्जित नहीं है, बल्कि सदियों-सदी से प्रकृति के संसाधनों के साथ मानवीय नैतिक व सांस्कारिक जीवन मूल्यों को सहेजने का एक सार्थक विधान है ।

 जिसमे प्राकृतिक शक्ति (Netural Power) नीहित है ।

इसी प्राकृतिक शक्ति में नीहित जीवनशैली से आदिवासियों को प्राप्त चैतन्य शक्ति के कारण आज प्रकृति एवं उसकी संस्कृति विद्दमान है, जो किसी और समुदाय में नहीं मिलता ।

पढ़े लिखे आदिवासी समुदाय के लोग अपनी एवं दुनिया की महान समझी जाने वाली पवित्र आदिवासी संस्कृति को कुरूपता प्रदान कर रहे हैं ।

तथा दुनिया की आडंबरपूर्ण कृत्यों को सहेजकर आदिवासीपन एवं आदिवासी सांस्कृतिक जीवन के विनाश का घोर षडयंत्र रच रहे हैं ।

इसका परिणाम वर्तमान जीवन में विभिन्न स्वरूपों में मिलना/प्रकट होना शुरू हो चूका है,
चाहे वह सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, राजनीतिक व अन्य कोई दूरदृष्टिता अथवा उच्चस्तरीय
हितलाभ प्राप्त करने की दृष्टि से हो सकता है ।

आधुनिक भौतिक युग में यह कहा जाय कि आदिवासियों को भौतिक सत्ता की कुर्सी पर बिठाने
वाली शक्ति उसकी संस्कृति है ।

संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज के आधार पर ही आदिम समुदाय को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है,
उसी संस्कृति को समुदाय के पढ़े-लिखे लोग आडंबरपूर्ण और मिथ्या करार देते हैं ।

जिस थाली में खाया उसी में छेद करने वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं, जिस संस्कृति ने आधुनिक सुख, सुविधा एवं सम्पन्नता प्रदान की उसी संस्कृति को ठोकर मारना ऐसे आदिवासियों को महंगा पड़ सकता है ।

आज भी समय है तथा वक्त की पुकार है कि आदिवासी जीवन की मुख्य धारा से दूर गया हुआ आदिवासी अपने वास्तविक जीवन शैली एवं संस्कृति की धरा पर वापस लौट आए अन्यथा इसका विनाशकारी दुष्परिणाम सम्पूर्ण आदिवासी समाज को भुगतना पड़ेगा ।

इस असामाजिक, असांस्कृतिक एवं अमानवीय कृत्य के लिए आदिवासी समाज के सिर्फ और सिर्फ पढ़े-लिखे, शिक्षित लोग ही जिम्मेदार होंगे ।


धर्म दर्शन

आदिवासियों का जन्मजात गौरवपूर्ण प्राकृतिक विधान/ज्ञान सम्पूर्ण मानव जाति में संतोष एवं सौहाद्रपूर्ण मानव नैतिकमूल्यों का संरक्षण करता है, अनैतिक छल-कपट, अमीरी-गरीबी, पाप-पुण्य का नहीं ।

ऐसे प्रकृति विधान रुपी ज्ञान का प्रकाश दस्तावेजी धर्मों के ज्ञान प्रकाश की सीमाओं तक कहीं भी नजर नहीं आता ।

अमानवीय, झूठी, स्वार्थसिद्धी के लिए किए जाने वाले आडंबरपूर्ण, अनैतिक जीवनमूल्यों के काल्पनिक प्रवाह को आज धर्म की संज्ञा दी जा रही है. धर्म प्रकृतिगत सांसारिक एवं सांस्कारिक मानवीय जीवनमूल्यों का पिटारा है ।

समता, सदभाव, समानता, संस्कृति, परम्परा तथा सम्पूर्ण मानवीय नैतिकमूल्यों का पवित्र प्रवाह के साथ प्रकृति के साधनों का संयमित उपभोग एवं सम्पूर्ण प्राणीजगत व उनके जीवन के हितों का संरक्षण करना ही धर्म है ।

धर्म- मानवीय स्वार्थसिद्धि का साधन नहीं है, जो आज के परीवेश में दिखाई देता है. किसी व्यक्ति विशेष की प्रतिभा, शास्त्र का चारित्रिक ज्ञान "धर्म" नहीं है ।

प्रकृति मे ही प्राणियों ने जन्म लिया. जीवन की प्रथम प्राण वायु इसी प्रकृति ने दिया ।

प्रकृति से ही भोजन पाया,प्रकृति मे ही जीवन संवारा और संस्कारवान बना ।

इसीलिए मनुष्य द्वारा प्रकृति मे समान जीवन जीने की कला-कौशल एवं समृद्धि हासिल करते हुए, इस प्रकृति रूपी विशाल रंगमंच पर, प्रकृति की तरह विराट हृदयी किरदार निभाकर, अंत मे उसी मे मिल जाना ही प्रकृति धर्म दर्शन है,इसके अलावा सब आडंबर है ।


जिन भी माताओ  बहनों बुजुर्गो तथा नवयुवको को आमदनी की तलाश हो,आमदनी प्राप्त करने के लिए विश्वसनीय कार्य की तलाश हो"तो मैं आपकी मदद कर सकता हूँ ।
ज्यादा जानकारी के लिए आप हमारे वेबसाइट पर जाकर जानकारी प्राप्त कर सकते है :-

वेबसाइट :-  यहाँ पर क्लिक करिए  



68 comments:

  1. Bhau sahab aapne bahut mehnat kar ke alek achhi lekh likhi hai. Aapko badhai.
    Leki mera kuchh shanka hai solve kare
    1 Jab dharti pe pahala jivan ke roop me gondi aaya to ye aryan bhi gondi se hi janme honge ya koi dusra bhi tha jiv is dharti pe
    2 aapne ye kaha padha ki aryan ghumantu hote the aur is bhumi ke nahi the
    3 to kaha ke the praman hai aapke pas
    4 gondwana ek kalpanik naam vaigyaniko ne rakha hai to ye aapke anusar prachin naam kaise hua
    5 aapko kisne bataya ki angrejo dwara chhapai machine se aaryo ke Dharm granth chhape gaye
    6 aap nalanda viswa Vidhyalaya ka naam to suna hoga usme ek muslim shashak ne aag laga kar jalwa diya tha. Haa to kripya ye bataye ki us viswa Vidhyalaya me mahino kya jal raha tha
    Sahab swal to bahut hai lekin aap jaiso se ek hi vinti hai ki bhart ke itihas ko na bigade pahle hi angrejo aur muslimo ne kafi bigar chuke hai. Agar aapko sahi shodh karni hai to bhartiya itihaas ki sahi shodh kar ke post kare kripa hogi.
    Bhram na phailaye tathyon ke saath sahi itihaas likhe.
    Jay bhawani

    ReplyDelete
    Replies
    1. k . narayan baat toh sahi hain tumhari
      Iss baat main toh koi shak nhi hona chahiye ki har ek rachna ko shringaar ki jarurat toh hoti hi hain aur shayad isi wajah se jo apne swal puche ki pahla manav gondi tha toh phir arya bhi inhi me se nikle honge toh kabhi research kariye apko pata chal jayega ki chandel rajput gond mul ka rajput vansh hain aur rathore khar se nikle hain es tarah se kahu toh bharat main har ek jati kisi n kisi आदिम jati se sambandh rakhti hain par tab kya jab woh bharat ke kisi aadim Jati se sambandh nhi rakhti ? Toh kya use bhahar ka nhi to kaha ka kahe main yah nhi kah raha ki vo kisi aadim jat se sambandhit nhi hai. Kyoki aisa toh bilkul nhi ho sakta ki koi chand taro se paida hua jaisa ki apke dharmo main apko bataya jata hain
      2 ka jawab
      Ek kaum adivasi tab kahlati hain jab wo kisi ek hi region main kam se kam 40 se 50 hazaar salo se rah rahi ho , aur yeh toh saaf hain n apko ki aap ek aadivasi nhi ho kyo ki ho toh meri aur se shubhkamnaye aur nhi ho to iska matlab aap yaha ki aadim jati se sambandhit nhi ho ya phir kahna chaiye ki apka khoon kisi ek nsl ka nhi hain usme milavat hai yaha ke aadim jatiyo aur bahar ki aadim jatiyo ka
      3 is point par toh main aapse sahmat hu kyoki mujhe nhi pata ki kisne yeh naam likha
      Par jaha tak main janata hu woh akbar ke darbaaar se sanmbandit tha aur yeh sabhd jyada purana nhi rani durgawati ke samay ka hi hain.
      5
      Yeh point bhi galat hain ki angrezo ki printing machine se dharm grandtho ki chapai hui kyo ki pandulipiyo ka awishkar bhut pahle ho gaya tha aur woh bharat main chalan main thi par uske pahle bharat main logo ne yaad karke dharm grantho ko itne saalo tak surkshit rakha
      6 yeh muslmaano ke sabse घ्रनित kamo main se ek tha na jaane kitne varsho ki tapsya aur mehnat aur kitni hi raato ki nind mai. Lipti aankho ke saath anyay hua us din par yeh bhi hain ki kitab ki asli kimat ek pathak hi samajh sakta hain

      Delete
    2. * yaha toh humne woh jawab diye jo apne puche par kya aap mere sawalo ka jawab doge
      Shuru karte hai. Jaato aur gurjaro se ki aaj tak unhe rajputo ki tarah kshtriya hone ka drja puri tarh se kyo nhi diya gaya jabki gurjaro ko angrezi shashan kaal main criminal tribe bana diya gaya aur jaato main bhagat singh jaise veer yodha paida hue
      2 aapne humesha rajputo ko aur un logo ko jyada ahmiyat di jinhone hindu dhrm ke naam par ladayi ladi phir maratho ke saath aaj tak behd bhaav kyo
      3 apne gaur kiya hoga ki main gondo ki baat nhi kar raha ya phir bhilo ki mundao ki kyoki
      Mujhe ab yah bhut acchi tarah se samajh aa gaya hain ki jab aap log apne logo ko samaan nhi dete toh dusro ko kya donge
      Main ek rajgond hu aaj bhi ghar main purani talware aur bharmaar (bandook)rakhi hain
      Mere pita ne mujhe humare khandaan ki ek kahani sunayi ki ek samay aisa tha ki humaare ghar main khaane ke liye anaj nhi tha par angrezo ko khilane ke liye goliyo ka dher laga rakha tha humne kabhi apni mitti aur desh ke liye samjhonte nhi kiye akbar ke samay teen hi rajya the jinhone haar nhi maani unme se ek gondwana tha aur aaj rajput jitne shaan se maharana pratap ka naam le lekar mucho par taav dete nhi thakte toh unme aadha hissa bhilo ka hai aaj bhi mewad ke jhande par ek tarf bhil hain aur dusri aur rajput iske bavjud hume log dutkarte hai pata nhi kyo par agar aaj madhya bharat main hindu dhrm majority main hain toh gondo ki vajah se main padhane ke liye chhindwara aaya aur yaha gond bahul elaka hai
      Aur yaha ke gond itne bhole hain ki kah nhi sakta inhe khud ke hi itihas ke baare main nhi pata yakeen nhi hota ki yaha jo log aaj gond shabd ko tab upyog main laate hain jab unhe kisi ko nicha dikhana ho , ha humaare paas zyada paise nhi hote pata hai. Kyo kyoki humne kabhi appke ke hindu dhrm walo ki tarah khud ke desh se gaddari nhi ki humare ghar ki aurate kabhi musalmaano ke ghar byaah kar nhi gyi humaare ghar ke mardo ne kabhi angrezo ki sena main bharti nhi hue varna zameen zyadaad toh humaare paas bhi bhut hoti thi bas ladne ke liye hathiyaaro ki jarurrat padi is liye ajj ke gaon ke mahajano ko bechte gai aur yeh baate apko koi nhi batayenga gondo ke baare main apko bataya jayega ki gond jungli hote hain toh main apko ek baat yeh bhi kahna chaunga ki gond खुनखार bhi bhut hote hai aur ha apko apke hindu dharm ki ek aur sachayi batana chaunga ki agar ye apne aap mai. Pura hota n toh isme itne saare edition nhi hote unhi ka natija hain ki buddh , sikh , jain jaise dharm ban gaye aur un maratho ke saath bhedbhaav vale video ka link send karta hu dekh lijyega jo kaum yudh main khoon bahati hain n woh kaum samman dena bhi bhali bhati janti hain bada dard hua mere dil ko jab pata chala ki aapka dharm apne hi hindu dharm ke vijetao ke vanshjo ko samman nhi de sakta suna hain ki brahmmano ne shivaji ka rajyabhishek karne se mana kar diya tha kyoki unke kstriya hone
      Ka pramaan nhi tha sharm aani chahiye apko jo ise saapo ko dudh pilate ho jo samaj ko aur kamjor banate hain
      At last सारे जात भाईयो को यही कहुँगा कि
      हम हिन्दू धर्म के समकक्ष हो सकते हैं पर साथ कभी नहीं

      Jai Lankheh
      Jai koya punem

      Delete
    3. https://youtu.be/GOXMiR8LUhg
      Ise dekho gondo aur ab jaag jao ......
      Bhut so liye...

      Delete
    4. Bahut accha laga ye padhkar mujhe bhimal pen ke sabhi bhai beheno ke baare me aur bhi jaankari chahiye

      Delete
  2. जय सेवा।
    750 क्यो लिखते हैं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. mujhe to jayda pata nhi par itna pata hain ki jitne adiwashi ate hain hain Jaise ki gownd,baiga,uraaw , bijhwar addi or in sabhi jati ki up jati total 750 hain is liye 750 pure addiwashi ka number hain

      Delete
  3. Very nice history of Gondwana

    ReplyDelete
  4. Very nice history of Gondwana

    ReplyDelete
  5. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  6. Mujhe mere purvajo ke histry padkar bahut acha laga ! Jab se thodi samaj ayi hai tab se apne porvajo ke bare me janna chahata hu

    ReplyDelete
  7. Bahut acchi jankari dada
    Sadar seva johar dada

    ReplyDelete
  8. बहुत बढि़या जानकारी,अन्य जातियों से हम अपेक्षा रखते हैं कि उन्होने हमारा इतिहास नही लिखा वो लिख भी नही सकते थे क्योंकि गोंड प्रकृति के गूढ रहस्यों को भली भाँति जानते थे यह विद्या पीढी दर पीढी मौखिक ट्राँसफर होती रही और गोंड या आदिवासी ही पृकृति की मूल को समझ सकता था इसलिये वह जंगलों में रहता था वही उसकी राजा और राजधानियाँ थीं जो हमारी पूजन पद्धति थी उसको आर्यों ने तंत्र मंत्र झाड़ फूँक और अँध विश्वास का नाम दिया जबकि उन देवीय शक्तियों पर भरोसा करके हमने मध्य काल में 1750 वर्ष के लगभग राज्य किया यदि आदिवासी ,अपनी उसी पद्धती पर अडिग बना रहता तो इतनी दुर्गति न हो पाती और पूर्वजों की गूढ विद्या आज भी उसके पास होती मैं भी गोंड राजा हूँ हमारे पूर्वज अमर शहीद महाराजा डेलन शाह जी को पृकृति शक्ति की कृपा से गोली,फाँसी,तलवार कुछ नहीं लगता था वे भारतीय इतिहास के एकमात्र महाराजा हैं जो तीन दिन तीन रात फाँसी पर जीवित लटके रहे। अफसोस करने की बजाय अब हम लिखना चालू करें एक दिन हमारा भी ढेर सारा साहित्य हो जायेगा इसमें शंसय नहीं।

    कुँवर भीष्म शाह
    8889279701

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत अच्छा हमारा इतिहास भी लिखित में होना चाहिए अपना भी ग्रंथ होना चाहिए

      Delete
  9. गोड़ समाज हिंदू ही है गर हिंदू न होते तो हिंदू देवी देवताओं के नाम पर अपना नाम न रखते जैसे वीरांगना रानी दुर्गावती और अन्य गोंडवाना शासकों ने भी अपने आने वाले पीढ़ियों के नाम भी रखे। गोंडवाना लैंड में गोंड शासकों का पूर्ण वर्चस्व रहा हैं और विप्र जनों (ब्राम्हणों) का कोई प्रभाव भी नहीं रहा होगा तो फिर कैसे गोंड शासक हिंदू धर्म से जुड़े देवी देवता काली, दर्गा, विष्णु और शिव व अन्य पर आस्था रख मंदिरों का निर्माण क्यों किया ? इसका जवाब कौन देगा। कुछ कम लिखे लोग तरह तरह के गलत उदाहरण के माध्यम से गोंड समाज को हिंदू धर्म से अलग करने का षड़यंत्र लगातार करने में लगे हैं।
    गर आयों ने भारत में आकर आक्रमण कर हमारे देश में आर्य परंपरा की शुरुआत की तो हास्यापद लगता है कि कोई तो गोंडवाना शासक हिंदू धर्म से जुड़े देवी देवताओं का विरोध करता कहीं न कहीं विरोध तो दिखता। और गोंड शासक इतने कमजोर तो नहीं थे कि अपनी परंपरा और आस्था तक के लिए संघर्ष नहीं कर सकते थे। जो रानी दुर्गावती महिला होकर अपने राज्य की जनता के लिए वीरांगना हो सकती हैं तो क्या अन्य गोंड शासक नहीं लड़ते? हम सब भारतीय है और हम में एक नहीं हजारों समानताएं हैं जैसे गोत्र, जाति, कुल देवी देवता, पूजा, स्नान, मृत्यु उपरांत जलाना, शोक, और भोज, विवाह में धार्मिक अनुष्ठान आदि इत्यादि।। भारत में अनेक जातियां हैं सबके बहुत कुछ अलग अलग और मिलते जुलता बोली, रीति औ रिवाज हैं ।।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सभी प्रकार की जानकारी चाहिए मै भी grup में जुड़न चहुग

      Delete
    2. मेरे जानकारी के अनुसार जितने भी हिन्दू देवी देवता हैं वे सब पुराने आदिवासी समाज के जाने माने हस्तियां है।

      जिनको आर्यों ने अपने स्वार्थ के लिए उन्हें देवी देवता का रूप दे दिया है और खुद उसका सेवक बनकर पुरे क्षेत्र में प्रचार प्रसार किया और उन्हें देवी देवता का रूप दे दिया है।

      असल में जितने भी देवी देवता का नाम आप जानते हो उन सभी नामो को जमीनी स्तर पे देखोगे तो वो सब अपने अपने क्षेत्र के एक जनि मणि हस्ती ही है।

      Delete
    3. Bhai ADIVASI hindu nahi he name rakhne se hindu nahi ban jate. Jay JOHAR jay ADIVASI. 🏹

      Delete
  10. Insano ki suruat hum adivasi se hi hue h fir bhi log samjhte nh

    ReplyDelete
  11. Insan ne taraki ky kr li wo khud ki jaat bhul gaya

    ReplyDelete
  12. Komra gotra ka totam kya hai dada

    ReplyDelete
  13. Jai gondwan agar aap gondwana samaj ko aahge badan chahte ho to contact kare 62633339451

    ReplyDelete
  14. Jai gondwana land
    Jai sewa jaibada dev

    ReplyDelete
  15. बहुत शानदार जानकारी.....
    सेवा जोहार

    ReplyDelete
  16. सेवा जोहार

    ReplyDelete
  17. आप सभी से निवेदन है कि मुझे इस ग्रुप में जोड़ें आप सभी से निवेदन

    ReplyDelete
  18. आप सभी से निवेदन है कि आप मुझे इस ग्रुप पर जुड़े मेरा मोबाइल नंबर। 7489027123

    ReplyDelete
  19. सेवा जोहार आप सभी से निवेदन है कि मुझे इस ग्रुप में जोड़ें आप सभी से निवेदन

    ReplyDelete
  20. Good work Sir gond rajao ke itihas ke bare me bhi vistrut likhan kijiye

    ReplyDelete
  21. सेवा जोहर बहुत बडियाँँ जानकारी.. दादा
    🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  22. सेवा जोहार

    ReplyDelete
  23. Aise hi itihas likhna sathiyo

    ReplyDelete
  24. Isko padhke bhi yahi samajh me aata hai mahadev se bada koi nahi.🚩🚩har har mahadev 🚩🚩

    ReplyDelete
  25. Bahut sahi Jagah Samaj Mujhe ki Kuchh County Dharm Riti riwaj ki jankari pradan karne ki Daya Karen

    ReplyDelete
  26. Jey sewa johar mujhe ye jankar bahut Khushi hui 🙏🙏🙏✊✊

    ReplyDelete
  27. Samod kumar Gond

    ReplyDelete
  28. Replies
    1. जय जोहार जय आदिवासी

      Delete
  29. Jai seva jai bada dev
    Jai johar jai adivasi

    ReplyDelete
  30. जब तुमको पता है हिंदू देवी देवता शंकर पार्वती को मानते हैं और बेद पुरान भी मानते है राम सीता को मानते है कौरव पाण्डव को मानते दस दिशा को मानते है फिर तुम हिंदू क्यों नही हुए ?
    हिंदू सनातन संस्कृति धर्म को मानता है सनातन में आदिवासी भी आते होगे ?
    जब आदिवासी संकर जी पार्वती को मानते है तो सनातनी हुए के नही?
    जब सतयुग द्वापर त्रेता युग और कलयुग का पता है तो आप हिंदुओं से दूर क्यों ?
    अगर आप हिंदू न माने तो सनातनी ही समझ ले ?
    जय महाकाल
    जय जय श्री राम
    जय भीष्म पितामह
    जय गंगा मैया

    ReplyDelete
    Replies
    1. तो भाई सुन अभी तू इतिहास में कच्चा है कभी आदिवासियों के इतिहास पड़ेगा तब तुझे पता चलेगा किसके इतिहास में कितना पावर है।
      तुम एक साइड देखे हो दूसरी साइड भी तो देख। रोटी दोनों हाथों से बनती है एक हाथ से नहीं ब्रदर इसलिए इतिहास पढ़ो और सही समझो और सही कमेंट करो जय जोहार जय आदिवासी
      सनातन की बात कर रहा है ना भाई सनातन शब्द सबसे पहले किसने प्रयोग किया था पहले यह ढूंढो फिर इस पेज में कमेंट करना ब्रदर
      और भाई अपने आप को हिंदू कहते हो ना तुम बाहर से आए हो और इस देश का पहला मूल मलिक आदिवासी है और आदिवासी ही रहेगा ।।
      उलगुलान जिंदाबाद जय जोहार

      Delete
  31. Jay Budha Dev

    ReplyDelete
  32. जितेंद्र सिंह गोंड

    ReplyDelete