Sunday 4 October 2015

गोटूल'' तत्वज्ञान

आदि महामानव पहांदी पारी कुपार लिंगो का ''गोटूल'' तत्वज्ञान

 हमने पूर्व में "कोया पुनेम (गोंडी धर्म) सदमार्ग" पढ़ा है, इस कोया पुनेम तत्वज्ञान में (१) सगा (विभिन्न गोत्रज धारक समाज), (२) गोटूल (संस्कृति, शिक्षा केन्द्र), (३) पेनकड़ा (देव स्थल, ठाना), (४) पुनेम (धर्म) तथा (५) मुठवा (धर्म गुरु, गुरु मुखिया) यह पांच वंदनीय एवं पूज्यनीय धर्म तत्व हैं।

इनमे से किसी एक की कमी से कोया पुनेम अपूर्ण ही रह जाता है,
आदि महामानव पहांदी मुठवा पारी कुपार लिंगों ने अपने साक्षीकृत निर्मल सिद्ध बौद्धिक ज्ञान से सम्पूर्ण कोया वंशीय मानव समाज को सगायुक्त सामाजिक जीवन का मार्ग बताया।

सगायुक्त सामाजिक जीवन के लिए उचित एवं अनुकूल व्यक्तित्व,
नव वंश में निर्माण करने के उद्देश्य से पारी कुपार लिंगों ने "गोटूल" नामक शिक्षण संस्था की स्थापना की
गोटूल, यह संयुक्त गोंडी शब्द गो+टूल इन दो शब्दों के मेल से बना हुआ है ।


"गो" याने 'गोंगो' अर्थात दुःख एवं क्लेश निवारक शक्ति, जिसे विद्या कहा जाता है  "टूल" याने ठीया, स्थान,स्थल  इस तरह गोटूल का मतलब गोंगोठाना (विद्या स्थल, ज्ञान स्थल) होता है ।

प्राचीन काल में गोंडवाना के प्रत्येक ग्राम में जहां गोंड वहा गोटूल संस्था विद्दमान थी ।

फिर चाहे वह मूलनिवासियों में से किसी भी समुदाय के क्यों ना हो. गोटूल संस्था को विभिन्न प्रदेशों में विभीन संज्ञाओं से जाना जाता है ।

जैसे- भूंईंया गोंड इसे 'धंगर बस्सा' (धंगर याने विद्या, बस्सा याने स्थल), मुड़िया गोंड इसे 'गिती प्रोरा' (गिती याने ज्ञान, प्रोरा याने घर), और उराँव गोंड इसे 'दूम कुरिया' (दूम याने विद्या, कुरिया याने पढ़ाई का स्थान, घर) आदि ।

इस तरह गोटूल नामक शिक्षा संस्था की स्थापना कर उसमे छोटे बाल-बच्चों, उम्र के ३ से लेकर १८ वर्ष तक के लिए उचित शिक्षा प्रदान करने का कार्य पारी कुपार लिंगों ने शुरू किया ।

इस पर से पारी कुपार लिंगो के कोया पुनेम तत्वज्ञान में
बौद्धिक ज्ञान विकास को कितना अग्रक्रम में दिया गया है,
इस बात की जानकारी हमें प्राप्त होती है ।

गोंडवाना दर्शन में उल्लेख मिलता है कि माता रायतार जंगो के अनाथ आश्रम में माता रायतार जंगो और माता कली कंकाली के आश्रय, छत्रछाया में पल एवं बढ़ रहे मंडून्द (तैंतीस) कोट बच्चों को स्वभाव परिवर्तन, सुधार के लिए महादेव की आज्ञा से कोयली कचारगढ़ गुफा में बंद कर दिया गया था ।

गुफे के द्वार को एक बहुत बड़े चट्टान से बंद कर दिया गया था ।

यह चट्टान महादेव की संगीतमय मंत्र से पूरित था, इसे खोलने का उपाय केवल महादेव ही जानते थे ।

गुफे के शीर्ष में होल नुमा संकरा छिद्र था और आज भी है, जो पहाड़ में शीर्ष पर खुलता है ।

गुफे के अंदर से उन बच्चों का इस छिद्र के द्वार से निकल पाना संभव नही था ।

इसी छिद्र से उन बच्चों को माताओं के द्वारा भोजन पहुचाया जाता था ।

वर्षों तक बच्चे गुफा में ही बंद रहे, बच्चों के बिना माताओं (माता रायतार जंगो और माता कली कंकाली) का हाल बेहाल होने लगा ।

उनहोंने बच्चों को मुक्त करने के लिए महादेव से कई बार निवेदन किए, किन्तु महादेव ने उन्हें मुक्त करने में असमर्थता जताया ।

उधर बच्चों के बिना माता रायतार जंगो तथा माता कली कंकाली का मातृत्व ह्रदय और शरीर जीर्ण-क्षीण होने लगा था ।

माताओं की इस अवस्था को देखकर महादेव को दया भाव जागृत हुआ
और वे उन बच्चों को गुफा से मुक्त किए जाने का मार्ग बताया " इसे कोई महान संगीतज्ञ ही खोल सकता है,
जो दसों भुवनों और प्रकृति के चर-आचार, जीव-निर्जीव, तरल-ठोस सभी तत्वों की आवाज का ज्ञाता हो, संगीत विज्ञानी हो तथा उन आवाजो का लय बजा सकता हो या पूरी सृष्टि की लय जिसका संगीत हो ।

यह सुनकर माताओं के लिए दूसरी संकट खडी हो गई. महादेव ने ध्यान से आँखें खोलते हुए कहा- वह महामानव, संगीतज्ञ इस संसार में आ चुका है ।

केवल वही इस गुफा के द्वार का चट्टान अपनी संगीत विद्या की शक्ति से हटा सकता है ।

 माताएं महादेव के बताए मार्ग अनुसार उसे ढूँढने निकल पड़ीं और 'हीरासूका पाटालीर' के रूप में उसे पाया ।
महादेव की आज्ञा से हीरासूका पाटालीर ने अपने संगीत साधना से महादेव के द्वारा गुफा के द्वार पर बंद की गई मंत्र साधित चट्टान को हटा दिया ।

चट्टान के हटने और लुड़कने से उसमे दबकर हीरासूका पाटालीर की मृत्यु हो गई ।

उस संगीत विज्ञानी का यहीं अंत हो गया, बच्चे गुफा से मुक्त हो गए ।

अब महादेव और माताओं को बच्चों की भविष्य की चिंता सताने लगी, सभी मंडून्द कोट बच्चे केवल मांस के लोथड़े भर थे, उन्हें किसी भी तरह का सांसारिक व सांस्कारिक ज्ञान नही था ।

महादेव को मालूम था कि पेंकमेढ़ी सतपुड़ा पर्वत माला पर एक महान दार्शनिक, प्रकृति विज्ञानी पहांदी पारी कुपार लिंगो उनकी आज्ञा से गहन प्राकृतिक ज्ञान, धर्म की शोध-खोज, ध्यान, योग में जुटा हुआ है ।

वह ज्ञानी पुरुष ही इन बच्चों को जीवन ज्ञान से प्रकाशित कर सकता है, महादेव स्वयं उनकी खोज में निकल गए. सुबह-सुबह ही महादेव पहंदी पारी कुपार लिंगो के साधना स्थल, उस पर्वत पर स्थित विशालकाय पेड़ के नीचे पहुच गए ।

इस एकांत निर्जन स्थान पर लिंगो लगभग ७ वर्षों से गहन आध्यात्मिक शोध में जुटे हुए थे ।

वे उस समय भी ध्यानमग्न थे, महादेव उनकी तंद्रा तोडनी चाही, उनकी तंद्रा टूटी किन्तु वे महादेव को देखकर भी उनके शरीर में हल-चल, जरा भी विचलन नही हुआ ।

महादेव उनके मन में उत्पन हल-चल को समझ रहे थे,
पहंदी पारी कुपार लिंगो को उसी समय अंतर्ज्ञान की प्राप्ती हुई थी ।

अंतर्ज्ञान की प्राप्ति होते ही उसे अंतर्ज्ञान से एक स्त्री के ऊपर बिजली गिरने से उसकी मौत का समाचार उसे मिल चुका था ।

एक स्त्री की मौत का ज्ञान दर्शन होना उसे आश्चर्य कर दिया था, कि यह दृश्य उसे कैसे दिखाई दिया ।

जिसके कारण वे महादेव की आवाज को ग्रहण और सुन नही पाए, महादेव उनकी मनःस्थिति को जान गए थे ।

महादेव ने लिंगो से कहा- जो तुमने अंतर्ज्ञान में दिखाई दिया, वह सत्य है "पारी कुपार "
अब तुम्हे अंतर्ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है, एका एक महादेव का वचन सुनते ही लिंगो की तंद्रा टूटी और वे महादेव को समक्ष में देखकर विचलित होकर खड़े हो गए ।

वह महादेव से जानना चाहा कि ऐसा क्यों हुआ और वह स्त्री कौन थी"
महादेव ने कहा कि यह तुम अब सब कुछ जानने लगे हो, मेरे द्वारा अब यह बताने की आवश्यकता नही है ।
महादेव ने उन्हें उनके पास आने का कारण बताया और पारी कुपार लिंगो को अपने साथ ले गए ।

 पहंदी पारी कुपार लिंगो को जो दृश्य उनके अंतर्ज्ञान में दिखाई दिया था ।

वह विकट दृश्य माता कली कंकाली की मृत्यु का समाचार था, बताया जाता है कि माता अपने आश्रम के पास के विशालकाय बरगद के नीचे काम कर रही थी ।

अचानक आसमान पर बिजली कौंधी और उस बरगद के झाड़ पर आसमानी बिजली गिरी, इस आसमानी बिजली से कली कंकाली माता की मृत्यु हो गई ।

इस समय लोहगढ़, कचारगढ़ के उस स्थान पर बरगद पेड़ का कोई नामोनिशान नही है, किन्तु वहीँ पर कली कंकाली माता की मढ़िया हमारे पूर्वजों नें स्थापित कर दिया है ।

इस मढ़िया में समाज के भूमका-पुजारियों द्वारा सतत कोया मुनेमी रीति रिवाज से पूजा अर्चना की जाती है ।

तथा माता जी के दर्शन के लिए देश के ओर-छोर से श्रद्धालु हर दिन मढ़िया में जाते रहते हैं ।

प्रतिवर्ष इस स्थान पर माघ पूर्णीमा में विशाल मेला लगता  है ।

यह मेला पूर्णिमा के ४ दिन पहले से शुरू होकर पूर्णिमा के दिन समाप्त हो जाता है ।

देश भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं और गढ़ माता की मढ़िया, कली कंकाली मई की मढ़िया, जंगो माई, लिंगो कुटी, बड़ादेव गुफा, बड़ा गुफा (जहां मंडून्द कोट बच्चो को बंद किया गया था) आदि का दर्शन कर कोया पुनेम का बीज मंत्र लेकर चले जाते हैं ।

मंडून्द कोट बच्चों को कोयली कचारगढ़ गुफा से मुक्त कर उन्हें उचित शिक्षा प्रदान करने के लिए कुपार लिंगो ने सर्वप्रथम 'गोटूल' नामक शिक्षा केन्द्र की स्थापना एकांतमय, शांतिपूर्ण वातावरण से शुरू की ।

पारी कुपार लिंगो ने उन मंडून्द कोट बच्चों का मानसिक, शारीरिक विकास किया. उन्हें सगा सामाजिक एवं धार्मिक शिक्षा दी. तत्पश्चात उन्ही के माध्यम से सम्पूर्ण कोयावंशीय मानव समुदाय में गोटूल संस्थाओं का निर्माण कराया गया ।

पारी कुपार लिंगो के मतानुसार छोटे बच्चो पर जन्म से ही माता-पिता के संस्कार आ जाते हैं ।
अच्छे-बुरे लोगों की संगत का प्रभाव उनपर होता है, हम जहां कहीं, जिस जगह में रहते हैं, उस पर्यावरण से हमारा जीवन प्रभावित होता है ।

यदि निवास स्थान के पास झगड़ा-फसाद करने वाले लोग रहते हैं, तो उसी वातावरण में लोगों के विचार व्यवहार प्रभावित होते हैं, अंत में उसी के मुताबिक वह अपना व्यवहार करता है ।

ऐसे अंधकारमय वातावरण में रहकर मनुष्य को "सुयमोद वेरची तिरेप" अर्थात सद्ज्ञान प्रकाश किरण का दर्शन नही हो पाता, मानव जीवन की मौलिकता इस अज्ञानता के पर्यावरण में फंस जाने से लुप्त हो जाती है ।

मनुष्य अपने वास्तविक रूप एवं स्वहित को देखने में असमर्थ हो जाता है ।

उसकी वैचारिक एवं बौद्धिक शक्ति कमजोर हो जाती है ।

पारी कुपार लिंगो ने इसीलिए अपने सगा शिष्यों के माध्यम से सम्पूर्ण कोयावंशीय मानव समाज की "नार उंडे गोटूल" अर्थात ग्राम एवं गोटूल संस्थाओं की स्थापना किस स्थल पर और कैसे पर्यावरण में करना चाहिए"

इस बारे में अपने बौद्धिक ज्ञान प्रकाश के बल से निम्न "नार गोटूल" मंत्र दिया है, जिसे "मूठ लिंगो मंतेर" कहा जाता है और जिसका प्रपठन शुभ मंगल बेला के अवसर पर वर-वधुओं को आशीर्वाद देते वक्त सगा भूमका द्वारा किया जाता है :-

"बेगा चिड़ीचाप कमेकान अलोट,
फव्व वड़ीकुसारता ठीया आयात |
ताल्कानूंग दाय पुटसीनकून बेगा,
मान मति छन्नो आया पर्रीन्ता |
अदे ठीया ते नार उचिहतोना,
उंडे सगा बिडार गोटूल दोहताना |

अर्थात जहां एकांतमय, शांतिपूर्ण वातावरण हो, जो अपने वास्तविक सुख संपदा के लिए उचित एवं अनुकूल हो, जहां अपने वैचारिक शक्ति को प्रेरणा मिलती हो ।

ऐसे शांतिपूर्ण वातावरण में ग्राम बसाना चाहिए एवं गोटूल संस्था की प्रतिस्थापना करनी चाहिए. गोंड समाज में आज जहां-जहां भी गोटूल संस्थाएं विद्दमान हैं :-

वे सभी एकांतमय शांत वातावरण में ग्रामों के मध्य ही प्रतिस्थापित हैं तथा उनमे जो बच्चे रहते हैं वे ग्रामवासियों के सामाजिक जीवन में जो बुराईयां होती हैं, उनसे परे रहते है ।

गोटूल प्रमुखों का कर्तव्य क्या होता है, इस बारे में जानकारी हमें "कंकाली सुमरी मंतेर" से प्राप्त होती है, जिसका प्रपठन गोटूल माता कली कंकाली की पूजा करते वक्त सगा भूमका अर्थात गोटूल प्रमुख द्वारा किया जाता है :-


"कयक साहचो आसरो सिम कंकाली आयनी,
कोड़ाते बिया छव्वानूंग नीवा कलीया दाईनी |
मतिय, मेंदोल, मोद्दूर, पुनेमता मुन्सार किम,
सगा बिड़ारता पुयनेंग सुयताकत्ता सर्री सिम |"

उक्त "कली कंकाली सुमरी मंतेर" में  कली कंकालीन माता से यह प्रार्थना की जाती है कि "
हे कली कंकाली माता !

हाथ बढ़ाकर हमें आशीर्वाद दीजिए, हम तुम्हारे बालक हैं, हमें अपनी गोद में लीजिए. हमारा मानसिक, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास कार्य में मदद कीजिए तथा हमें सगा धर्म, सगा नीति एवं सत्य मार्ग दिखाईए ।

इस पर से यह सिद्ध होता है कि उम्र के ३ वर्ष से लेकर अठारह वर्ष तक सगा समाज के जो बच्चे गोटूल में रहते हैं, वहाँ उनका मानसिक, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास करने का कार्य किया जाता है ।

साथ ही उन्हें सगा सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों का परिपाठ भी पढ़ाया जाता है. जिससे वे सगा समाज के उचित एवं होनहार घटक बन सकें ।

मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह एक मांस का लोथड़ा मात्र होता है ।

उसे "मति उंडे मोद्दूर" अर्थात मन एवं बुद्धी जैसी क्षमता जन्म से ही प्राप्त होती है ।

उसका मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक विकास गोटूल संस्था में ही किया जा सकता है, ऐसा पारी कुपार लिंगो ने कोया पुनेमी सार्टुका में बताया है :-

"लोंदा लेका उंदी रवान्ठू मता,
मानवाना जीवा पुटसी वायाता |
मति, मद्दूर, कमोक धमूक चोलाता,
मुन्सार सगा गोटूलते ने आयाता |
परोल मूंद सावरीनोर कान्डाना,
सगा गोटूल वाटसी सियाना |


उपरोक्त सार्टूका के द्वारा आज भी गोंड समाज जब नवजात शिशुओं का नामकरण विधि का कार्यक्रम होता है,
तब उनके माता-पिताओं को 'सगा भूमके' (ग्राम माता) की ओर से ऐसा उपदेश दिया जाता है, कि "तुम्हारा बच्चा एक मांस का गोला है, उसकी परवरिश के लिए एवं उचित शिक्षा के लिए उसे ३ वर्ष के बाद गोटूल में भेजना न भूलिए."

इस पर से यह सिद्ध होता है कि बच्चा ३ वर्ष के हो जाने पर वह गोटूल का सदस्य बन जाता है, जहां उसके व्यक्तित्व का विकास किया जाता है. प्राचीन काल में जब प्रत्येक ग्राम में गोटूल संस्थाएं विद्दमान थीं ।

तब उनमे मनुष्य का मानसिक विकास साध्य करने के लिए उसके आचार-विचार, भावना, चरित्र आदि उज्जवल करने का कार्य गोटूल में किया जाता था ।

उसका बौद्धिक विकास करने के लिए, इच्छा शक्ति, अनुकरण शक्ति, तर्कशक्ति आदि गुणग्राह्य क्षमताओं का विकास किया जाता था ।

अतिरिक्त इसके उसका शारीरिक विकास साध्य करने के लिए खेलकूद, तीरकमान, मल्ल, मुस्टी, लाठी-काटी आदि विधाओं का प्रशिक्षण दिया जाता था ।

इस प्रकार मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक विकास के साथ साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों का परिपाठ सभी बच्चों को पढ़ाकर उनका व्यक्तित्व निर्माण किया जाता था ।

सगा समाज के बच्चे बड़े होकर स्वावलंबी जीवन जी सके, इसलिए उन्हें उत्पादन व्यवसायों का ज्ञान भी पढ़ाया जाता था ।

इस तरह कोया पुनेम मुठवा पहांदी पारी कुपार लिंगो की शिक्षा के मुताबिक गोटूलों में बालकों को उचित शिक्षा दी जाती थी ।

सगा समाज के ईष्ट एवं आदर्श तथा श्रेष्ठ जीवन मूल्यों के बारे में भी जानकारी दी जाती थी ।

संक्षिप्त में गोटूल की शिक्षा से मनुष्य सुशील, सभ्य, संयमपूर्ण बनता था. गोटूल के सहजीवन से वह कोया पुनेम तत्व ज्ञान का अंतिम लक्ष्य "जय सेवा" मंत्र का अधिष्ठाता बन जाता था ।

उसके दिलो दिमाग में सेवा भाव जागृत होकर वह सर्व कल्याणवादी बन जाता था ।

उपरोक्त विवरण से गोटूल संस्था की प्रतिस्थापना, जिससे कि वे कोया पुनेम गुरु पारी कुपार लिंगो न केवल बौद्धिक ज्ञान के अधिष्ठाता थे, बल्कि एक महान शिक्षातज्ञ, मानसतज्ञ एवं यथार्थवादी भी थे ।

पारी कुपार लिंगो द्वारा बताए गए मार्गों के अनुसार ही आज का मानव समाज शिक्षा संस्थाओं की प्रतिस्थापना की है ।

प्राचीन काल में आर्य समाज के अंदर केवल आश्रम व्यवस्था थी तथा उसमे राजा, महाराजा एवं ब्राम्हणों के ही बच्चों को शिक्षा दी  जाती थी. शेष वर्णों के लिए कोई जगह नही थी ।

उसी तरह स्त्री शिक्षा पर उनके द्वारा पूर्ण रूपेण प्रतिबंध लगाया गया था. मूलनिवासी इसके विपरीत आदिकाल से समाज में जो गोटूल संस्थाएं थी, उनमे लड़के-लड़कियों सहित सभी के बच्चों को प्रवेश दिया जाता था ।

इस तरह पारी कुपार लिंगो का तत्वज्ञान  कितने उच्चतम मूल्यों का परिपूर्ण एवं सर्वकल्याणवादी है, यह सभी पाठकों के समझ में आ जाएगा ।

आज के जमाने में गोटूल संस्थाओं की जो हालत दिखाई देती है, वह प्राचीन काल में कदापि ऐसी नही थी ।
विदेशियों के आक्रमणों से गोंडों की सामाजिक व्यवस्था तहस नहस हो गई ।

उन्हें मजबूरी में जंगल पहाड़ों में जाकर बसना पड़ा. उनकी आर्थिक ढांचा बिगड़ गई. जहां पेट भरना भी मुश्किल हो, वहाँ गोटूल जैसे शिक्षा केन्द्र चलाना कहाँ से संभव होगा ।

इसलिए आज उसकी नीव ही खत्म हो चुकी है. इसके बावजूद भी यदि गोंड समाज को उन्नति साध्य करनी है, तो जहां गोंड है वहाँ आधुनिक गोटूलों की स्थापना करना निहायत जरूरी है ।

जहां आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ अपनी भाषा, संस्कृति, धर्म आदि की जानकारी अपने बच्चों को देकर समाज की खोई हुई अस्मिता जागृत करने का कार्य हो,
जिससे उन्हें स्वाभिमान से जीने की राह मिल सकती है ।


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